Thursday, June 2, 2016

सिनेमा में दलित-स्त्री

सिनेमा में दलित-स्त्री विषयक मुद्दे को दो तरह से देखा जा सकता है- एक तो स्वयं सिनेमा इंडस्ट्री में दलित-स्त्रियों की उपस्थिति कितनी है और दूसरे, सिनेमा में दलित-स्त्री मुद्दे की अभिव्यक्ति कितनी और किस-किस रूप में हुई है। आइए, पहले दलित और स्त्री आइडेंटिटी को अलग-अलग करके विचार करते हैं। अगर सिर्फ़ स्त्रियों या नायिकाओं तक सीमित रहें तोये मानने में कोई दोराय नहीं कि सिनेमा का काम स्त्रियों के बिना नहीं चल सकता। आप ये नहीं कह सकते कि स्त्रियों की भागीदारी यहाँ है ही नहीं! आपका कोई विज्ञापन, कोई गीत, कोई फ़िल्म बिना स्त्री की भूमिका के नहीं बनता। पुरुषों के सेविंग मटीरियल से लेकर मेल-गारमेंट्स तक स्त्री वहाँ-वहाँ भी है, जहाँ वह न हो, तो भी शायद काम चल सकता है। लेकिन बाजार है साब, कब, कहाँ किस चीज की जरूरत न क्रियेट कर दे!! खैर, मुद्दे पर आएँ तो पाएंगे कि यहाँ स्त्री प्रधान फिल्मों और अभिनेत्रियों की संख्या बहुत है, हर पहलू पर है। यहां एक ओर स्मिता पाटिल, नंदिता दास और शबाना आजमी मिल जाएंगी तो दूसरी ओर एकता कपूर से लेकर फराह खान तक। 25-30 कमाल की महिलाएं हैं जिन्होंने जन सरोकार की फिल्में बनाई हैं। श्याम बेनेगल और दूसरे कई फ़िल्मकारों ने स्त्री-मुद्दों को लेकर खूबसूरत फिल्में बनाई हैं। प्लेबैक सिंगर महिलाओं को लें तो अपने यहां लता मंगेशकर से लेकर श्रेया घोषालआदि तक स्त्री की ही आवाजें हैं, यानी कोई फ़िल्म, कोई गीत, कोई विज्ञापन स्त्रियों के बिना पूरा नहीं होता। तो ये आप नहीं कह सकते कि स्त्री भागीदारी यहां नहीं है।
सिनेमा-इंडस्ट्री में दलित कलाकारों की उपस्थिति को डॉ. सुधीर सागर की पुस्तक हिंदी सिनेमा, टी.वी और नाटकों में दलित दस्तकसे समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कुछेक दलित कलाकारों जैसे शैलेन्द्र, अजयलाल आदि के नाम बताए हैं, पर उस गिनती में प्राय: पुरुष कलाकार हैं। यानी दलित-स्त्रियाँ वहाँ लगभग नहीं है। सुधीर ने कहा भी है, ‘हिंदी सिनेमा, टी.वी और नाटकों में दलितों की कितनी भागीदारी है, इसका लेखा-जोखा या दस्तावेज नहीं है। हम लोंगों को पता नहीं है। फलां फिल्म का लेखक दलित है। फलां नाटक का निर्देशक दलित हैं। हिंदी सिनेमा, टीवीऔर नाटकों में दलित की भागीदारी है लेकिन संवादहीनता के कारण जानकारी नहीं है।अगर कोई इस पृष्ठभूमि का कलाकार है भी तो व्यावसायिकता के दबाव की वजह से सामने नहीं आता। अगर किसी के बारे में पता भी चल जाता है तो ऐसे कलाकार और निर्देशक के साथ क्या हो सकता है। उसका उदाहरण देखें। 2013 में जेनी रोवेना का एक लेख आया था-Can A Dalit Woman Play a Nair Role in Malayalam Cinema Today?यह लेख मलयालम सिनेमा की दलित क्रिश्चियन नायिका पीके रोजी पर केन्द्रित है। पीके रोजी 1928 में एक दलित निर्देशक जेसी डेनियल द्वारा विगथकुमारन (द लॉस्ट चाइल्ड) नाम से मलयालम में निर्मित पहली और मूक फ़िल्म की पहली नायिका थी। जिसमें रोजी ने एक नायर महिला का रोल निभाया था। ज्योंही यह फ़िल्म रिलीज हुई, नायर लोगों ने सिनेमा के पर्दे फाड़ डाले और रोजी के घर को जाकर आग के हवाले कर दिया। इन तथाकथित रखवालों को यह बर्दाश्त नहीं था कि एक दलित महिला फिल्म में उंची जाति की महिला का किरदार निभाए। इस घटना के बाद पीके रोजी ने सिनेमा और केरल हमेशा के लिए छोड़ दिया। कुछ लोग कहते हैं कि नायर प्रभुओं के डर से उसने आत्महत्या कर ली थी। कहीं न कहीं इस डर से भी सिनेमा-इंडस्ट्री से जुड़े ऐसे लोग सामने नहीं आते। कुल मिलाकर, सिनेमा इंडस्ट्री में दलितों या दलित-स्त्रियों की उपस्थिति का सवाल बेमानी-सा हो जाता है।
अब विषयानुसार सिनेमा में दलित-स्त्री मुद्दों की अभिव्यक्ति पर गौर करें। गौर करें कि नायिकाओं के इस तथाकथित मेले में दलित-स्त्रियाँ की आवाज कहाँ है और कैसी है? हर वर्ष 800 फ़िल्मों का उत्पादन करने वाले देश में दलित-स्त्री के मुद्दे पर कितनी फ़िल्में बनी हैं। 100 साल के बुजुर्ग हो चुके भारतीय सिनेमा ने इस विषय को कितनी गंभीरता से लिया है!
दलित-स्त्री को ध्यान में रखकर अब तक अछूत कन्या, चंडीदास,अछूत, अर्पण, सुजाता, परख, अंकुर, बॉबी,गंगा की सौंगध, सौतन, दामुल,रूदाली, बैंडिट क्वीन, समर, बवंडर, वैलकम टू सज्जनपुर, नसीम अख्तर के निर्देशन में बनी फ़िल्म तेरे नाम’, ‘दूसरी शादी’, मलयालम फ़िल्म नीलाक्कुयिलआदि का जिक्र किया जा सकता है।
सिनेमा ने अपने यहाँ दलित-स्त्री मुद्दों की अभिव्यक्ति, एक तो बहुत कम की है, जितनी की है, उसके दो प्रकार हैं। इस संदर्भ की कुछ फ़िल्मों में दलित-स्त्री प्रश्नों के साथ गाँधीवादी सहानुभूतिपूर्ण, रोमानी रवैया अपनाया गया है, लेकिन कुछ फ़िल्में ऐसी भी हैं,जिनमें जाति और जेंडर का मसला काफ़ी आपत्तिजनक ढंग से पेश किया गया है।
तो शुरुआत करते हैं हिमांशु राय के बैनर तले बनी फ्रैंज ऑस्टन द्वारा सन् 1936 में निर्देशित फिल्म अछूत कन्यासे। यहां अछूत कन्या है कस्तूरी (देविका रानी)। यह ब्रिटिश राज में भारत के सिनेमा का सुधारवादी दौर है। पर समाज कस्तूरीऔर उसके उच्च जाति के प्रेमी प्रताप (अशोक कुमार) के प्रेम को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। हालांकि प्रताप के पिता मोहन (पी एफ पीठावाला) गांधीवादी व सुधारवादी किस्म के पात्र हैं जो कस्तूरी के पिता के घनिष्ठ मित्र भी हैं। लेकिन यह मित्रता जातिगत स्तर को कभी नहीं छूती। फिल्म के सभी पात्र जाति प्रथा को मौन सहमति देते हुए दिखते है। दुखिया के अत्यधिक बीमार होने पर मोहन उसे समाज का विरोध झेलकर भी अपने घर में सेवा-सुश्रुषा के लिए ले आता है और इस क्रम में अपना घर बार गवाँ बैठता है लेकिन प्रताप और कस्तूरी की शादी के प्रश्न पर मौन रहता है। प्रताप की शादी अपने ही वर्ण की मीरा से हो जाती है। कस्तूरी एक त्यागमयी पात्र बनी रहती है। उसके जीवन का एकमात्र दुख है प्रताप से विवाह न हो पाना। जाति-बिरादरी की परंपरा को परमसत्य मानकर वह प्रताप के साथ भागने से मना करती है और अपने पिता की मर्जी से मनु (अनवर) से विवाह कर लेती है। उसे एक देवीटाइप पात्र के रूप में चित्रित किया गया है, यहीं से उसके विद्रोही संभावनाओं को खत्म कर दिया जाता है। उसका चरित्र कुछ यों दिखाया गया है कि अछूत होते हुए भी उसने दूसरों के लिए जानें दी और शहीद होकर बड़ी हो गई। यानी अछूत होते हुए भी व्यक्ति अपने बलिदान द्वारा महान बन सकता है।
कुछ इसी तरह के सुधारवाद की एक बानगी मलयालम फ़िल्म नीलाक्कुयिलमें मिलती है। नीलाक्कुयिल श्रीधरन नामक एक उच्च-जाति युवक, जो कि पेशे से शिक्षक है, की नीली नाम की एक दलित युवती से प्रेम की कथा है। जब तक यह रिश्ता समाज से अन्जान और जिम्मेदारियों से मुक्त रहता है, इसमें कोई दिक्कत नहीं आती। लेकिन ज्यों ही नीली श्रीधरन को अपने गर्भवती होने की बात बताकर विवाह करने का प्रस्ताव रखती है, श्रीधरन मुकर जाता है और अपनी ही जाति की एक स्त्री से शादी कर लेता है। नीली दुखी होती है, लेकिन वो बच्चे को जन्म देने का फ़ैसला करती है। पर डिलीवरी के दौरान उसकी मृत्यु हो जाती है, बच्चा जीवित रहता है। जिसे शंकरन नायर नाम का एक पोस्ट मास्टर पालने लगता है। इधर श्रीधरन और उसकी पत्नी को बच्चा हो नहीं पाता, तब पोस्ट मास्टर के समझाने पर आखिरकार वह अपनी गलती स्वीकारता है और बच्चे को अपना लेता है। कस्तूरी और नीली दोनों दलित-स्त्रियाँ है। इसीलिए सिनेमा ने उनके साथ यह सुलूक दर्ज किया।
बंगाल के संत चंड़ीदास पर बनी फिल्म चंडीदासमें सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के एक गाँव में स्थित जागृत देवी बांशुली के मंदिर में वैष्णव चंडीदास ठाकुर को दिखाया गया है। वे ईश्वर को पाने का एक मात्र मार्ग, प्रेम ही मानते थे। निम्नवर्ग की रानी धोबिन में उन्हें सच्चे प्रेम की छवि दिखी। चंडीदास एक ऐतिहासिक और समाज से मान्यता प्राप्त कथानक पर आधारित फ़िल्म थी। जिसमें तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बावजूद संतकवि चंडीदास को वर्गभेद, सामाजिक बंधन, धर्मान्धता लांघकर एक निम्न जाति की स्त्री के साथ दिखा दिया गया है। इस दृष्टि से ये क्रांतिकारी फ़िल्म थी।
इन दो परिवर्तनकामी फिल्मों के बाद 1940 में सरदार चंदूलाल शाह निर्देशित और मोतीलाल गोहर मामाजीवाला द्वारा अभिनीत फिल्म अछूतप्रदर्शित होती है। यह फिल्म अछूत कन्याका थोड़ा सा परिष्कार है। इसमें भी उच्च जाति का लड़का और निम्न जाति की लड़की का प्रेम, संघर्ष और सामाजिक रूढ़ियों के चलते अंत में नायक-नायिका द्वारा अपने प्राणों का बलिदान है। बदलाव सिर्फ इतना कि फिल्म के अंत में नायक-नायिका अपने प्राणों का अंत गाँव के मंदिर में सबको प्रवेश दिलाने में करते हैं। यद्धपि फिल्म गाँधीजी के हरिजनोद्धार और मंदिर प्रवेश की पृष्ठभूमि पर निर्मित है, किन्तु उससे आगे जाकर वह यह भी संदेश देती है कि अछूतोद्धार सिर्फ दिखावे से नहीं होगा, अपितु सबको व्यवहार में समान समझना होगा और बराबर अवसर पाने के मौके देने होंगे। इस फिल्म की प्रसंशा सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने भी थी।
अर्पण’(1957) हिन्दी सिनेमा की उन ऐतिहासिक दुर्लभ फिल्मों में से एक है, जिसका आधार दलित जीवन बना। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद (चेतन आनंद) और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडालिका (प्रिया राजवंश) के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमकथा है, जिसमें अपनी माँ के तंत्र-मंत्र और जादू के बल पर दलित युवति चांडालिका आनंद को वश में कर लेती है। बंधन में पड़कर आनंद अपना स्वाभाविक स्वरूप खो देते हैं। चांडालिका आनंद की दयनीय और विरूप स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाती है। वह वासना भाव से ऊपर उठकर आनंद को मुक्त कर देती है और स्वयं भी अपना सारा जीवन बुद्ध के चरणों में जाकर अर्पण करती है।
सन् 1960 में विमल रॉय ने सुजाताबनाई। यहां छूआछूत की समस्या को गांधीवादी नजरिए से हल करने कीकोशिश की गई है। सुजाता (नूतन) अछूत व अनाथ है, उसे एक सुधारवादी सोच का उपेन (तरुण बोस) अपने घर पर पत्नी के विरोध के बावजूद पालता है। उसे नया नाम देता है सुजाता, जिस पर पत्नी कहती है कि  ’’जाति कुजाता और नाम सुजाता’’। यहां भी अछूत कन्याकी कस्तूरीकी तरह सुजाता भी त्यागमयी, कर्मशील, समर्पणशील नारी के रूप में पर्दे पर आई है। क्योंकि जहां उसे आश्रय मिला है, उस आश्रय के भार तले वह अपना सर्वस्व समर्पित कर देना चाहतीहै। वह उपेन की बेटी रमा (शशिकला) की तरह पढ़ने, कॉलेज जाने के बारे में सोचते हुए दिखाई नहीं पड़ती। जबकि रमा एक आधुनिक नारी के रूप में दिखाई देतीहै, कॉलेज जाती है, नृत्य-गायन तमाम कलाओं का प्रशिक्षण लेती है, टेनिस खेलती है। न तो रमा न ही उपेन सुजाता की शिक्षा की ओर सोचते हुए दिखाई पड़तेहैं। गांधीवादी नजरिए से हृदय परिवर्तनका जोर फिल्म में रहा है क्योंकि फिल्म में रमा की मां ही एक ऐसी पात्र है जो सुजाता को कभी भी मन से अपना नहीं पाती है लेकिन अंत में सुजाता के द्धारा दिए गए खून से ही उसकी जान बच पाती है। इस घटनाक्रम से उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। फिल्म में सुजाता के माध्यम से यह संदेश देने की कोशिश है कि उच्च जाति के लोगों को अछूतोंके प्रति अपनी सोच बदलकर उन्हें अपनाने की जरूरत है, बाकी दूसरे प्रहार जो जातिगत संरचना को तोड़ने के लिए हो सकते थे, वो फिल्म से नदारद हैं।
गंगा जमना(1960) में भी ज़मीदार के अत्याचार और एक सामान्य किसान गंगा के बागी होने की दुखांत गाथा है, किन्तु इसमें दलित युवती धन्नो (बैजंयती माला) और गैर ब्राह्मण युवक जमुना (दिलीप कुमार) की मार्मिक प्रेमगाथा भी शामिल है। फिल्म में जमना और धन्नो के विवाह के पूर्व हाथ में जनेऊ लेकर पुरोहित जमना से यह कहता है कि यह विवाह इसलिए नहीं हो सकता कि तेरी जात धन्नो की जात से ऊँची है, उस समय गंगा का पुरोहित को भगवान के महामंत्री संबोधित करते हुए प्रतिउत्तर में यह कहना कि, ‘‘जब ऊँची जात वाले ऊकी गत बना रहे थे, तब तुम कहाँ गए थे? जब हमरी कुत्ते जैसी दशा हो रही थी, जब हम भूखे पेट जंगल में मारे-मारे फिर रहे थे। चल-चल के हमरे पैरों में छाले पड़ गए थे, उत्ते समय हमरे सर पे हाथ रखे कोई नहीं आया। ई आई थी और तुमरे सामने खड़ी है। उस दिन हम येके काँधे पे सर रख के रोये थे...।’’ इस रूप में यह फिल्म ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध जाते हुए, सामंतवाद के खिलाफ लड़ाई का हथियार भी बनती है।
गंगा की सौगंध (1976) राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के दौर सुल्तान अहमद निर्देशित गंगा की सौंगधएक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा (गंगा) जमींदारी अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य कहानी है।
बैंडिट क्वीनऔर बवंडरइस प्रसंग में महत्व की फ़िल्में हैं। बैंडिट क्वीनके प्रसंग में तेलुगु दलित स्त्री रचनाकार चल्लापल्ली स्वरूपारानी का यह मार्मिक कथन फ़िट बैठता है। जिसके अनुसार,सवर्ण तो हमें भोग्या समझाते हैं, दलित पुरुष भी मात्र सम्पत्ति के रूप में देखते हैं।एक सामन्य दलित पिछड़ी युवति से बागी/डाकू बनी फूलन देवी के ऊपर यह पंक्ति खरी उतरती हैं। इसे शेखर कपूर निर्देशित फिल्म में देखा जा सकता है कि कैसे मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में फूलन को एक अदद साइकिल और एक गाय के बदले अपने से तिगुनी उम्र के व्यक्ति पुत्तीलाल (आदित्य श्रीवास्तव) से ब्याह दिया जाता है। इसके बाद उनके आपसी संबंध स्वरूपारानी के उक्त वक्तव्य की स्पष्ट तस्दीक करते हैं। गाँव के ठाकुरों द्वारा बलात्कार के संदर्भ में तो यह कथन ठीक है ही।
गौरतलब है कि गुजरात में भी एक स्त्री डकैत हो चुकी है। संतोकबेन जडेजा नामक लेडी डॉन के नाम से मशहूर इस स्त्री पर भी बॉलीवुड ने एक फ़िल्म बनाई थी- 'गॉडमदर"। ध्यान दें, संतोकबेन ने अपने पति सरमन मुंझा की मौत के बाद अपने बच्चों को बचाने केलिए हथियार उठाए थे। मुंझा को 80 के दशक में दुश्मन गिरोह के सदस्यों ने मार दिया था। संतोकबेन का गिरोह कथित तौर पर कम से कम 18 हत्याओं के लिए जिम्मेदार था। बैंडिट क्वीन की फूलन पर भी 22 हत्याओं को जुर्म था, लेकिन उस पर बलात्कार हुआ था, जिसकी वजह उसका दलित स्त्री होना था, स्त्री संतोकबेन भी है, पर बलात्कार की वजह से डॉन नहीं बनती।
पिछड़ों द्वारा दलित उत्पीड़न की एक झलक जो हम फिल्म बैंडिंट क्वीनमें देखतें है, उसका विस्तृत रूप बबंडरमें देखने को मिलता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध भँवरीदेवी बलात्कार कांड पर बनी जगमोहन मूँदड़ा निर्देशित इस फिल्म में बलात्कारी पिछड़ी जाति के थे।
चार साल की अबोध उम्र में साँवरी का सोहन के साथ ब्याह हुआ था। वह सामाजिक कार्यकर्ता शोभा (दीप्ति नवल) के संपर्क ढाई सौ रुपए माह की पगार पर साथिनसंस्था की ज़मीनी कार्यकर्ता बन जाती है। साथिनसंस्था का कार्य तमाम सामाजिक बुराईयों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा और बाल विवाह के विरूद्ध लोगों में जन-जागरुकता पैदा करना है। साँवरी इस काम को बखूबी करती अपने साहस की हद तक चली जाती है। वह गाँव में अखतीज के दिन गुर्जर समुदाय के यहाँ सम्पन्न हो रहे बाल विवाहको भी पुलिस और साथिनसंस्था की मदद से रुकवाती है। एक नीच जाति की लुगाई गुर्जरों के शुभकार्य में विघ्न डाले, यह भला उन्हें कैसे स्वीकार होता। फलस्वरूप गाँव के पाँच गुर्जर मिलकर निकल पड़ते हैं साँवरी और उसके पति को सबक सिखाने। वे सोहन को बंधक बनाकर, बारी-बारी से असहाय साँवरीदेवी का बलात्कार करते हैं। राजस्थान के सांमतीय और जातिवादी समाज की जड़ें खोदती फिल्म बवंडरमें ध्यानाकर्षण योग्य पात्र विधायक धनराज मीणा भी है। कहने को वह आदिवासी है, किन्तु पक्ष निबल का नहीं सबल का लेता है। क्या इससे हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि सत्ता पाते ही व्यक्ति का वर्ण और वर्ग दोनों बदल जाते हैं।
पिछले दिनों आई फ़िल्म वैलकम टू सज्जन पुर’ (2008) में दबे रूप में ही सही, दलितों के प्रति पिछड़ों का झुकाव प्रदर्शित किया गया है। गाँव की अहिरवार (दलित) लड़की का ठाकुर (यशपाल शर्मा) के लड़के द्वार बलात्कार और ठकुराइन द्वारा लड़की हत्या के केस में फँसे होने के परिपेक्ष्य में, नायक आँख चढ़ाकर व्यंग्य में लड़की के बदचलन होने की बात नकारता है, तब उसकी दलित पक्षधरता स्वयं सिद्ध हो जाती है।
ये कुछ ऐसी फ़िल्में कही जाएंगी जिनमें दलित-स्त्री के प्रति सहानुभूतिपूर्ण, सकारात्मक रवैया देखने को मिलता है। कुछ ऐसी फ़िल्में भी हैं, जिनमें बाकायदा नकारात्मक भूमिका देखने को मिली है। पिछले दिनों सलमान खान और भूमिका चावला की एक फ़िल्म आई थी-तेरे नाम। वो आपको याद होगी। लेकिन इसी नाम से नसीम अख्तर निर्देशित एक और फ़िल्म आई थी तथा उसमें भी नायिका का नाम निर्जलाथा। इसमें उच्च जाति का नायक निर्जला से प्रेम करता है। फ़िल्म के संवाद न केवल घटिया और गरिमाविहीन हैं, बल्कि एक जाति-विशेष को अपमानित करने वाले भी हैं। उदाहरण के तौर पर देखें। नायक नायिका से पूछता है- इसमें क्या है?’ नायिका अपने स्कूली बैग से एक तिनकों की छोटी-सी झाड़ू दिखाते हुए कहती है, ‘मैं इसे इसलिए अपने साथ रखती हूँ ताकि मुझे अहसास रहे कि मैं एक जमादर की बेटी हूँ।यह सुनकर नायक कहता है, ‘तो तुम भंगन हो।इस संवाद द्वारा निर्देशक क्या कहना चाहता है कि इस जाति के लोग चाहें कितना भी पढ़-लिख लें, उन्हें कभी अपने पुश्तैनी पेशे को नहीं भूलना चाहिए। विवाह के मुद्दे पर नायिका का कहना कि, ‘झाड़ू की कसम, मेरा तुमसे शादी करने का कोई इरादा नहीं है।क्या दर्शाता है भला! इसी तरह एक बार नायक नायिका से उसके निर्जला नाम का अर्थ पूछता है। तो उसका पिता उसे निर्जला का अर्थ समझाता है कि, ‘जब एक खूबसूरत जमादारनी सड़क पर झाड़ू लगाती है तो वहाँ जो मजमा लग जाता है, उसे निर्जला कहते हैं।फ़िल्म में ऐसे और भी आपत्तिजनक संवाद हैं। इसी तरह देश की राजनीतिक आजादीवाले साल सन्‍ 1947 में राम दरियानी निर्देशित एक फ़िल्म आई थी- दूसरी शादी। इसका एक गाना काबिले-गौर है, जिसे शमशाद बेगम और राम कमलानी ने गाया है-
ओ भंगियों के राजा/ मेरा नन्हा सा दिल बहला जा/ओ भंगियों की रानी/तोरे बिन रूठी है मोसे जवानी/तुझसे बिछड़ कर ओ मेरे राजा फूट गई तक़दीर/यहाँ कहाँ हैं सेठ के घर की पकी पकाई खीर/रूठ गई झाड़ू मुझसे रूठ गई कोठरिया/कोई बहाना करके आजा भंगिन की छोकरिया।
वस्तुत: जाति का उपयोग या तो प्रभुत्व दर्शाने के लिए किया जाता है, या फ़िर अपमान करने के लिए। यहाँ जाति अपमानसूचक बनकर आई है।  ये है सिनेमा में दलित-स्त्री मुद्दों की अभिव्यक्ति।
इन कुछ अपवादों को छोड़दें तो प्रतिवर्ष 800 फ़िल्में देने वाले 100 साल के हो चुके सिनेमा में दलित-स्त्रियोंकी वास्तविक समस्याएँ लाने के प्रयास वस्तुत: गांधी के सुधारवाद और रोमानीपन से प्रेरित लगते हैं,या फ़िर एक हद तक अपमानबोध का। असल में, अभी भी दलित-स्त्री की वास्तविक समस्याएँ ठीक से आनी बाकी हैं। अपने एक इंटरव्यू में हिन्दी फ़िल्मों के अभिनेता विनय पाठक ने सिनेमा और साहित्य की तुलना करते हुए कहा था कि सिनेमा अब साहित्य से ज्यादा रच रहा है। ये बात एक हद तक सही है, पर उनमें दलित-स्त्री के मुद्दे शामिल नहीं हैं। गिने-चुने कुछ उदाहरणों के अलावा सिनेमा इस पर चुप्पी साधे हुए है। इसका कारण न केवल सिनेमा पर बाजार और पूँजी का नियंत्रण है, बल्कि अब इस क्षेत्र में स्वयं दलित-स्त्री की अपनी अनुपस्थिति भी है। अब या तो सिनेमा-इंडस्ट्री में काम कर रहे निर्देशकों के इतना संवेदनशील होने का इंतजार किया जाए कि वे इस विषय को पूरी ईमानदारी से जगह देने लगें अन्यथा जिस तरह साहित्य, संस्कृति, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में स्वयं दलित-स्त्रियों ने उपस्थित होकर अपनी आवाज बुलंद की है, वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में भी उन्हें स्वयं आकर हस्तक्षेप करना पड़ेगा, तभी सिनेमा में इस पक्ष का समावेश संभव है।

संदर्भ-
1.    हिंदी सिनेमा, टी.वी और नाटकों में दलित दस्तक- डॉ. सुधीर सागर
2.      Locating P K Rosy: Can A Dalit Woman Play a Nair Role in Malayalam Cinema Today-Jenny Rowena
3.    हिंदी सिनेमा और दलित चेतना- जितेन्द्र विसारिया
4.    हिंदी सिनेमा का जातिवादी चेहरा- जयप्रकाश वाल्मीकि

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-06-2016) को "मन भाग नहीं बादल के पीछे" (चर्चा अंकः2363) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown said...

आभारी हूँ सर