Tuesday, April 19, 2016

डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती



इस बार बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती वर्ष में उनके व्यक्तित्व और कृत्तित्व के साथ-साथ उनके द्वारा लिखे गए संविधान पर देश और दुनिया भर के मीडिया और संस्थानों में खूब चर्चा हुई है। कल का दिन केवल ज्ञान के पर्व के रूप में मनाया गया बल्कि संयुक्त राष्ट्र से मांग भी कि गई कि 14 अप्रैल के दिन को अंतरराष्ट्रीय समानता दिवस (World Equality Day) के रूप में घोषित किया जाए। इस क्रम में 25 नवम्बर, 1949 को संसद के केन्द्रीय-कक्ष से संविधान पर दी हुई उनकी चेतावनी भी खूब दोहराई गयी। स्मरण रहे उन्होंने उक्त दिवस को राष्ट्र को चेतावनी देते हुए कहा था- ’26 जनवरी, 1950 को हम राजनीतिक रूप से समान और आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होंगे। जितना जल्दी हो सके हमें यह भेदभाव और पृथकता दूर कर लेनी होगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग इस भेदभाव के शिकार हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे,जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है। हमें यह स्वीकारने में कोई दोराय नहीं होनी चाहिए कि आजाद भारत के शासकों ने डॉ. अंबेडकर की उस ऐतिहासिक चेतावनी की पूरी तरह अनदेखी कर दी। आज तक समाज में मौजूद यह आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी इसी का परिणाम है।
सवाल ये है कि ऐसे चेतावनियों की अनदेखी के साथ-साथ हमें इससे अवगत कराने वाले स्वयं डॉ. आंबेडकर के साथ हमने जो किया, वह तो और भी शोचनीय है। देखना ये भी चाहिए कि हमने डॉ. आंबेडकर और उनकी चेतावनियों, उनकी शिक्षाओं की जैसी अनदेखी की है, वह अनजाने में की है या फ़िर पूरी तरह होशो-हवास में..जान-बूझकर...
जो व्यक्ति प्रख्यात राजनीतिक विचारक, इतिहासकार, पत्रकार, महिला एवं दलित चिंतक, तर्कशास्त्री, अर्थशास्त्री, कानूनवेत्ता, दार्शनिक, मानवविज्ञानी, मानवाधिकार विशेषज्ञ, बौद्ध धर्म विशेषज्ञ और संवैधानिज्ञ हो, 9 भाषाएँ जानता हो , जिसे भारतरत्न, The Greatest Man in the World (Columbia University), The Universe Maker (Oxford University) और The Greatest Indian (CNN IBN & History TV जैसे सम्मानों से नवाजा जा चुका हो, अनजाने में कोई उसकी अनदेखी नहीं कर सकता! 

मित्रो, एक तो होती है शारीरिक विकलांगता, एक होती है- दृष्टि-बाधित विकलांगता। आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी से शब्द उधार लेकर कहें तो -दिव्यांगता। एक और विकलांगता होती है, जिसे मानसिक विकलांगता कहते है। मानसिक विकलांगता कई बार जान-बूझकर ओढ़ी भी जाती है ताकि अपना उल्लू सीधा किया जा सके। देश के एक अच्छे-खासे, समृद्ध वर्ग द्वारा डॉ. अंबेडकर जैसी शख्सियत को सिर्फ़ दलितों का नेता या नीची कही जाने वाली जातियों का मसीहा मानकर उनसे बचना हमारी जातिवादी मानसिकता या मानसिक विकलांगता का ही सूचक है।
स्थितियों का द्वैत देखिए- मान लीजिए हमारे शरीर के किसी अंग विशेष को अगर लकवा मार जाए, पैरालिसिस हो जाए, तो डॉक्टर बोलता है कि इस अंग का विशेष खयाल कीजिए। कुछ दिन में ठीक हो सकता है। क्या हम ऐसे डॉक्टर से बचते हैं, नहीं हम ऐसे डॉक्टर की प्रशंसा करते हैं। उसे विक्लांगों का डॉक्टर कहकर सीमित नहीं कर देते। साथ ही, उसके द्वारा बताए इलाज के अनुसार हम खुद उस कमजोर अंग का अपने सारे शरीर से ज्यादा ध्यान रखते हैं। मान लीजिए हमें सड़क पर कोई शारीरिक विक्लांग अथवा दृष्टि-बाधित व्यक्ति दिख जाए तो हम दौड़कर उसे सड़क पार करने में मदद करते हैं। हर कहीं उसे मानवीयता का विशाल सागर कहते हैं। उसकी प्रशंसा करते हैं। सदियों से हमारे नैतिक-मूल्य भी हमें यही पढ़ाते आए हैं कि कमजोरों की, असहायों की मदद करनी चाहिए। अंबेडकर यही तो कर रहे थे। शास्त्र और शस्त्र के बल पर जिस समाज को साजिशन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से विकलांग बनाया गया, उसके अधिकार छीनकर सेवा जैसे कर्तव्यों तक सीमित कर दिया गया। अंबेडकर समाज के उस शारीरिक, दृष्टि-बाधित और मानसिक रूप से विकलांग हिस्से को  शिक्षा, अवसर और आत्मविश्वास की लाठी देकर खड़ा होना सिखा रहे थे, क्या गलत कर रहे थे। अब हमारी मानसिक विक्लांगता का स्तर देखिए कि ऐसे संवेदनशील और परोपकारी व्यक्ति की प्रशंसा नहीं कर रहे, उसका समग्र मूल्यांकन नहीं कर रहे। उसे सिर्फ़ दलितों का नेता बनाकर सीमित कर दे रहे हैं। ताकि उसका वास्तविक स्वरूप सामने पाए। अगर गया तो कहीं उसके सामने दूसरे परोपकारी प्रतीक छोटे सिद्ध हो जाएँ। नहीं तो क्या वजह है मित्रो कि हिन्दू कोड बिल, जन-प्रतिनिधि बिल, मंत्रियों का वेतन बिल, मजदूरों के लिए वेतन (सैलरी) बिल, रोजगार विनिमय सेवा, पेंशन बिल, भविष्य निर्वाह निधि (पी.एफ.) जैसे अनेक बड़े समाज-हित के काम करने वाला व्यक्ति सिर्फ़ दलितों का नेता होकर रह गया। यह सही है कि जाति-व्यवस्था का विरोध उनके द्वारा उठाया गया सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य है, इसके बावजूद उनके सिर्फ़ एक ही कार्य छोड़कर अन्य उल्लेखनीय मुद्दे छोड़ देना हमारी मानसिक विकलांगता का सूचक नहीं हैं। किसी व्यक्ति के एक अच्छे काम को ही इतना हाइलाइट करो कि उसके आगे उसके दूसरे सारे अच्छे काम  दब जाएँ। वो एक सीमा विशेष, खाँचे विशेष में सिमटकर रह जाए। मित्रो, आज सबसे पहली जरूरत है कि हम सब इस मानसिक विकलांगता से बाहर आएं और डॉ. अंबेडकर से वाद-विवाद और संवाद करें। वे देवता नहीं थे, इंसान थे। आज जरूरत है कि हम उनसे जिरह करें। जहाँ संभव हो, उसने सहमति दर्ज करें और जहाँ जरूरत पड़े वहाँ असहमति भी दिखाएँ। इससे उनका कद कम नहीं हो जाता। आवश्यकता इस बात की है कि हम उनके विचारों को आगे बढ़ाएँ। जाहिर है, इसके लिए हमें उनको समग्रता में पढ़ना होगा। मित्रो, उनका व्यक्तित्व निस्संदेह विद्रोही और क्रांतिकारी है, लेकिन उनका कृत्तित्व बेहद सृजनात्मक, भ्रातृत्व और समानता लाने वाला है। वो एक शेर है- ‘हमें तेरी निगाहों ने अजब ये रौशनी बख़्शी, हम इस दुनिया को अब पहले से बेहतर देख सकते हैं ये है डॉ. अंबेडकर की देन।
अभी 7-8 दिन पहले मैंने न्यूज में सुना, एक दलित हिमायती नेता कह रहे थे- दलितों को सम्मेलन नहीं सम्मान चहिए। मैं कहता हूँ फ़िलहाल हमें सम्मेलन चाहिए, सम्मान। हमें समानता चाहिए- हर क्षेत्र में अवसर की समानता। सम्मेलन और सम्मान हम करवा लेंगे। ये समानता आज दे दी जाए तो बात बन जाएगी, ऐसा भी नहीं है। इस समानता के लिए पीढ़ियों से उस समाज के ऊपर लादी गई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक निर्योग्यताओं का खयाल करना होगा।
साथियो, मैंने यहाँ से अपनी बात शुरू की थी कि स्वाधीन भारत के शासकों ने डॉ.आंबेडकर और उनकी शिक्षाओं की यथासंभव अनदेखी की। पर वो आदमी इतना कुछ कर गया है कि मजबूरी में ही सही, वोट-बैंक के चलते ही सही, अब उनकी और अनदेखी संभव नहीं रही। किसी ने कहा है कि- ‘अगर  मरने के बाद भी जीना चाहो, तो एक काम जरूर कर जाना, पढ़ने लायक कुछ लिख जाना, लिखने लायक कुछ कर जाना।अंबेडकर इतना कुछ पढ़ने लायक लिख गए हैं और इतना कुछ लिखने लायक कर गए हैं कि  आज उनके जन्म के 125 साल बाद और उनकी मृत्यु के 60 साल बाद भी हम उनके जीवन एवं दर्शन पर विचार करने के लिए इकट्ठे हुए हैं। वरना तो वो एक शायर का प्रसिद्ध जुमला है- “कौन याद करता है किसी को उम्र भर, भूल जाते हैं अक्सर मतलब निकल जाने पर।बात सुनने में सही लगती है...मौजूदा दौर में प्रक्टिकल भी। पर कुछ शख़्सियतें ऐसी हुई हैं, जिन पर ये जुमला फ़िट नहीं होता...बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर उनमें सबसे ऊँचे पायदान पर खड़े नज़र आते हैं। सोचिए ज़रा...आख़िर कुछ तो किया होगा उस शख़्स ने, कि साल-दर-साल गुजरते जाने पर भी उनकी याद धूमिल पड़ने बजाय बढ़ती ही जा रही है। हर साल उनकी याद में संसद से लेकर सड़कों तक मेले लगाए जाते हैं। यहाँ तक कि हर आने वाली पीढ़ी उन्हें लेकर अपने से पहली पीढ़ी की तुलना में ज्यादा संजीदा नज़र आती है और उनकी कमी को बेहद शिद्दत से महसूस करती है... इस वर्ष पहली बार संयुक्त राष्ट्र (UN) में भी बाबा साहेब की जयंती मनाई गई, जहाँ उन्हेंवैश्विक-प्रतीककी संज्ञा से नवाजा गया। आखिर पढ़ने लायक और लिखने लायक कुछ तो किया होगा उस शख़्स ने...

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20 -04-2016) को "सूखा लोगों द्वारा ही पैदा किया गया?" (चर्चा अंक-2318) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'