Tuesday, April 11, 2017

॥डॉ. धर्मवीर को नमन ..भीगी आँखों के साथ॥


मैं कभी डॉ. धर्मवीर से पर्सनली नहीं मिल पाया, कभी कोई सीधी बातचीत नहीं हुई, पर उनकी लिखत खूब पढ़ी है, दूसरों की उनके बारे में कहत खूब सुनी है और हाँ, मित्रों-परिचितों द्वारा उनके साथ खिंचाए-लगाए फ़ोटो भी देखे हैं. इन सबको मिलाकर उनकी एक मिक्स छवि निर्मित हुई..एम.ए. के दिनों में उनकी किताब ‘हिन्दी की आत्मा’ पढ़ी थी, उसके बाद उनके द्वारा संपादित एक अज्ञात हिन्दू औरत की कथा ‘सीमन्तनी उपदेश’ देखी, फ़िर प्रेमचन्द : सामन्त का मुंशी’ आई, जिस पर ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका में लिखा भी, कबीर-सीरीज का उनका लेखन, आजीवक धर्म पर उनका काम, ‘मेरी पत्नी और भेडिया’ शीर्षक उनकी आत्मकथा, जनसत्ता में छपे उनके अनेक लेख, प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ पर ‘बहुरि नहिं आवना’ पत्रिका के जनवरी-सितंबर, 2011 अंक में प्रकाशित ‘मुर्दहिया के बुद्ध या राहुल’ शीर्षक उनका लेख, जिस पर ‘अपेक्षा’ पत्रिका में ‘बहाना आत्मकथा का, निशाना अस्मिता पर’ शीर्षक से लिखा भी और बजरिए एक मित्र, उनकी सराहना भी पाई...
जी हाँ, डॉ. धर्मवीर कमाल के शोधार्थी थे, ऐसे जीवट वाले कि जी-जान से अपने काम में जुटे रहते थे। आलोचना में नई ज़मीन तोड़ना इसी को कहते होंगे, अपनी बात को ऐसे कुशल तर्कों के साथ रखते थे कि उनके कॉन्सेप्ट से मन में चाहे लाख विरोध हो, तो भी उनके कहने के ढंग से, उनकी भाषा से प्यार हो जाता था, हो सकता है कुछ सम्मानित मित्र और परिचित मेरे कहे से नाराज हो जाएं, लेकिन दु:खद सच यह है कि इधर लोगों ने उनसे संवाद छोड़ दिया था, उनके लिखे पर सायास चुप्पी ओढ़ ली थी, यहाँ तक कि उनके लिखे का नोटिस लेना बंद कर दिया था, एक चिंतक को अघोषित ढंग से ‘पागल’ घोषित कर दिया गया था. उन्हें लगता था कि, डॉ. धर्मवीर दलित आलोचना की प्रतिगामी/प्रतिक्रियावादी धारा खड़ी कर रहे हैं, स्त्री-विरोधी हैं, आजीवक, जारकर्म आदि मुद्दों के माध्यम से ‘निजी’ को ‘सार्वजनिक’ कर शाश्वत बनाने में लगे हैं, पर्सनल पीड़ा को सिद्धान्त घोषित करने में लगे हैं, अगर उन पर लिखा-बोला गया तो इससे ‘फ़ालतू’ विषयों को, हवा देना हो जाएगा, डॉ. धर्मवीर को ‘चढ़ाना’ हो जाएगा, दूसरे वे किसी का लिहाज नहीं करते, लिखते-बोलते समय सामने वाले की इज्जत का कोई ‘डेकोरम’ नहीं रखते, बेहतर है, चुप रहा जाए, इसके उलट कुछ लोग आँख-मूँदकर उनके लिखे का वंदन करने में लगे थे, पर मुझे लगता है इसका सबसे बड़ा नुकसान आलोचना को हुआ, डिबेट और डिस्कशन, वाद-विवाद और संवाद का हत्था ही उखड़ गया, आप पीठ-पीछे उन्हें कितना भी भला-बुरा कहें, बुद्ध और अंबेडकर विरोधी कहें, लेकिन उनके लिखे से टकराए बिना आगे नहीं बढ़ सकते, काश कि उनकी लिखत पर लिखा जाता, कहत पर कहा जाता.. बशीर बद्र याद आ रहे हैं- ‘वो फरिश्ते आप तलाश करिए कहानियों की किताब में/जो बुरा कहें न बुरा सुनें कोई शख्स जिनसे खफ़ा न हो’.
पता चला, कल वे हमें छोड़कर चले भी गए..
डॉ. धर्मवीर अपने लेखन के लिए, खासकर, ‘हिन्दी की आत्मा’, ‘सीमन्तनी उपदेश’ और कबीर-सीरीज के लिए सदा याद किए जाएंगे..
नमन भीगी आँखों के साथ..

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