Sunday, April 11, 2010

सूचना- क्रान्ति के सामाजिक पहलू..

आज का समाज 'सूचना का समाज' माना जाता है। सूचना-क्रान्ति से समाज के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप जैसे- धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, प्रशासन, सरकार, उद्योग, अनुसंधान व विकास, संगठन और प्रचार आदि प्रभावित हुए हैं। माना जा रहा है कि सूचना रूपी यह क्रान्ति पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह बदल देगी। यह सच भी है। आज किसी एक देश में बैठा डॉक्टर  दूसरे देश के मरीज का  सफलतापूर्वक ऑपरेशन कर रहा है तो दुनिया के एक हिस्से में घटी कोई भी घटना पलभर में पूरे विश्‍व में फैल जाती है। जब अमेरिका के 'वर्ल्ड-ट्रेड- सेंटर' पर हमला हो रहा था तो सारी दुनिया ने वह दृश्‍य LIVE देखा था। सूचना क्रान्ति ने पुरानी फैक्ट्री-व्यवस्था को बदल डाला है। यहाँ तक कि स्कूली शिक्षा पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है। अब 'Reverse Home Schooling' की बात होने लगी है। जल्दी ही छात्र कक्षा एक से लेकर ऊपर तक स्कूल रूपी जेल से मुक्‍त होकर 'As is where is' के आधार पर शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे।
भारत भी सूचना-क्रान्ति की इस दौड़ में अग्रसर है। आज हमारा देश वैश्विक सॉफ़्टवेयर और बीपीओ (बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग) सेवा प्रदाता के रूप में उभर रहा है। वित्तीय वर्ष 2007 में आईटी क्षेत्र से होने वाली भारत की आय 47 अरब डॉलर थी, जो वर्ष 2006 की तुलना में 30 प्रतिशत ज्यादा थी। साथ ही इस क्षेत्र में 10 लाख 60 हजार लोगों को रोजगार भी मिला। देश में अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में कई ऐसी परियोजनाएँ चालू हैं जो देश को नई दिशा दे रही हैं, हमारी सोच को बदल रही हैं । भारतीय दूरसंचार ने भी पिछले वर्षों में विश्‍व पटल पर अपनी छाप छोड़ी है। भारत अब चीन और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा टेलीफोन नेटवर्क बन गया है। इसके अलावा भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा वायरलैस मार्केट है, जिसमें फ़िलहाल कोई 44 करोड़ वायरलैस उपभोक्‍ता शामिल हैं और 2013 तक 78 करोड़ उपभोक्‍ताओं तक पहुँचने का लक्ष्य है। इसके अतिरिक्‍त भारत में कोई 4 करोड़ लैंडलाइन उपभोक्‍ता हैं। साथ ही लगभग 22 करोड़ पीसीओ भी हैं। भारत में सेलफोन की दरें दुनिया में सबसे कम हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2009 में भारत में 94.80 लाख नए मोबाइल फोन उपभोक्‍ता बने। देश में मोबाइल ग्राहकों की संख्या बढ़कर 32.57 करोड़ हो गई है। सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कम्पनी बीएसएनएल उपभोक्‍ताओं की संख्या के अनुसार विश्‍व की साँतवी सबसे बड़ी कंपनी है। पिछले 2 वर्षों में भारत और चीन कम्प्यूटर की बिक्री में दुनिया भर में अव्वल रहे हैं।  मंदी की बात करें तो एक ओर जहाँ पूरे विश्‍व की अर्थव्यवस्था मंदी की मार से चरमराई  पर दूसरी तरफ़ भारत में यह उतना पराक्रम नहीं दिखा पाई। हाँ, नौकरियों में कमी जरूर हुई लेकिन दूसरे देशों की तुलना में यहाँ की स्थिति उतनी खराब नहीं रही।
ऐसा समझा जाता है कि आने वाले समय को 'आइस' युग के नाम से जाना जाएगा। 'आइस' यानी इन्फोर्मेशन, कम्यूनिकेशन एवं इंटरनेट। सूचना-क्रान्ति ने न केवल मनुष्य के आपसी रिश्तों को पुनर्परिभाषित किया है बल्कि भूमण्डलीकरण को भी अपना वास्तविक अर्थ प्रदान किया है।
परन्तु यह तस्वीर का अच्छा पहलू है। इसका एक नकारात्मक पक्ष भी है। माना कि हम लगातार प्रगति कर रहे हैं। उपभोक्‍ताओं की बढ़ती जरूरतों से निपटने के लिए सरकार और कंपनियाँ अपने-अपने ढंग से प्रयास कर रही हैं। सूचना-सुरक्षा के क्षेत्र में भारत का रिकार्ड अधिकांश देशों से बेहतर समझा जाता है। दूरसंचार, विद्युत, निर्माण कार्य, परिवहन, खानपान और अन्य सेवाओं पर इसका साफ़ असर देखा जा सकता है। सरकार ने अपने न्यूनतम साझा  कार्यक्रम (Common Minimum Programme) में गुणवता सुधार को प्राथमिक स्तर पर रखा है और जनता से सीधे जुड़े हुए क्षेत्रों में ई-शासन को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने का प्रयास किया है। इसके लिए एक राष्ट्रीय ई-शासन योजना भी तैयार की गई है जिसका उद्देश्य आम जनता को सभी सरकारी सेवाएँ उसी के इलाके में पहुँचाने की कोशिश की जा रही है। इसके बावजूद क्या हम अभी तक आशानुरूप आँकड़ा पूरा कर पाए हैं? नहीँ। वर्ष 2000 से भी अगर भारत में सूचना-क्रान्ति की बयार आई मानें तो पिछले 10 वर्षों में देश के कितने से लोग इसका लाभ उठा पाए, यह देखने योग्य है। क्या हमारी आधी बल्कि चौथाई आबादी भी इस क्रान्ति से लाभान्वित हो पाई? उत्तर इस बार भी 'नहीं' ही मिलेगा। सच यह है कि इंटरनेट की पहुँच के मामले में अंतरराष्ट्रीय औसत 16 प्रतिशत है जबकि भारत में यह केवल 6 प्रतिशत तक ही सीमित है।  देश की राजधानी दिल्ली से थोड़ा बाहर निकलकर देखें तो कितने ही लोग ऐसे मिल जाएंगे जिन्होंने सूचना-क्रान्ति तो क्या अभी तक बेसिक फोन के दर्शन नहीं किए हैं। अभी तो लोगों तक सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएँ नहीं पहुंच पाई हैं, सूचना-क्रान्ति तो दूर की कौड़ी है। यह असलियत है बीपीओ सेक्टर में अपने नाम का डंका पीटने वाले भारत की।
क्या भारत में जितने लोगों ने इस क्रान्ति का लाभ उठाया है, मात्र वही इस देश के बाशिंदे हैं? शेष आबादी की गलती क्या है? उनके बारे में ठीक से न सोचा जाना क्या उनके साथ सुविधा-प्राप्त वर्ग व सरकार की ज्यादती नहीं है? माना कि सूचना-क्रान्ति सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बेहद ज़रूरी चीज़ है पर क्या इसने हमारी कुछ बेहतर परम्परागत व्यवस्थाओं को झटका नहीं दिया है? चूंकि एक कम्प्यूटर कई टाइपिस्टों का काम अकेले और जल्दी कर लेता है, पर क्या इससे भारत जैसे जनसंख्या विस्फोट से जूझ रहे देश में बेरोजगारी को बढ़ावा नहीं मिल रहा है? आजकल सब-कुछ सीधे टाइप कर लेने के कारण क्या हमारी लिखने की आदत लगातार छूटती नहीं जा रही है? ज़रा याद कीजिए, हमने किसी अपने को अंतिम बार पत्र कब लिखा था? पहले पत्र हमारी जिन्दगी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। मुझे तो डर है कि आने वाली पीढ़ियाँ जब हमसे पूछेंगी कि ये पत्र क्या होता है, इन्हें क्यों लिखा जाता था तो हम क्या जवाब देंगे? हमारे पुरोधा साहित्यकारों और महत्वपूर्ण व्यक्‍तित्त्वों द्वारा लिखी चिट्ठियाँ हमें न केवल उनके विचारों को समझने में मदद करती हैं बल्कि समाज व इतिहास पर हमारी दृष्टि मजबूत करने में भी सहायता करती हैं। जब यह विधा ही समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा? क्या ब्लॉग और ईमेल आदि चिट्ठियों का स्थान ले सकते हैं? क्या सूचना-क्रान्ति से उत्पन्न एसएमएस और ईमेल की नई कल्चर ने हमारी भाषाओं के शब्दों को जबरदस्ती संक्षिप्तीकरण का झटका नहीं दिया है? दूसरे, क्या इस सूचना-क्रान्ति ने मानवीय जीवन-शैली को बेहद यांत्रिक नहीं बना डाला है?  पहले एक-दूसरे के साथ बैठकर जो संवाद स्थापित होता था वह मनुष्य को भावनात्मक संबल देता था। सूचना-क्रान्ति ने हमें यांत्रिक स्तर पर जरूर एक-दूसरे से जोड़ा है परन्तु भावनात्मक रूप से मनुष्य के एकाकीपन में लगातार वॄद्धि हुई है। यही कारण है कि आज पूरे विश्‍व में मनोरोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, आत्महत्याओं का ग्राफ़ लगातार चढ़ रहा है। सूचना-क्रान्ति ने हमारे पारिवारिक ताने-बाने को बेहद प्रभावित किया है। आज इंटरनेट पर उपल्ब्ध पोर्न-सामग्री ने वयस्कों ही नहीं बच्चों तक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है जोकि चिन्ताजनक है।
आज टीआरपी के मारे टीवी चैनलों, इंटरनेट और अन्य साधनों से हमें सूचनाओं की बेहिसाब ओवरडोज मिलती है, इन लगातार मिल रही सूचनाओं से हम इस कदर घिरे रहते हैं  कि एक समाज-मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण के अनुसार मनुष्य का दिमाग अतिरिक्‍त सूचनाओं के बोझ से उलझन महसूस करने लगता है।
बहरहाल, मेरा उद्देश्‍य सूचना-क्रान्ति के नकारात्मक पहलुओं की तरफ ध्यान दिलाकर उसकी अनुपयोगिता सिद्ध करना नहीं है पर  चूंकि ये ज़रूरी और वाजिब कारण हैं जिनसे मुखातिब हुए बिना हम सूचना रूपी इस क्रान्ति को अपने वास्तविक अर्थों में क्रान्ति शायद न कह सकें।

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