Thursday, May 13, 2010

मुक्‍ति-पथ..

प्रो. अभय मौर्य द्वारा रचित उपन्‍यास ‘मुक्‍ति-पथ’ में यद्यपि बहुत सारी घटनाओं का कोलाज-सा बन गया है, इसके बावजूद इस रचना की कहन (Way of Presentation ) बहुत अच्छी है। हरिय़ाणा के गाँवों के आपसी सम्बंधों की बारीक पड़ताल के साथ जगह-जगह वहां की भाषा का खूबसूरत प्रयोग इस रचना को जीवंत तेवर प्रदान करता है। वहाँ प्रचलित बाल-विवाह के प्रसंग, खेती-बाड़ी के हालात और खासकर खाप पंचायत की बेहरम मनमानी (जो आजकल हरियाणा में बेतरह कुख्यात है) का चित्रण उपन्यास को समकालीन संदर्भों में उल्ल्लेखनीय बनाता है।
इस रचना में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की सधे और सटीक शब्दों में सार्थक आलोचना की गई है। साथ ही, अकादमिक संस्थानों में फल-फूल रही चापलूसों की फौज का अच्छा चित्र खींचा गया है। महेश, जो कि दलित परिवार से संबंधित युवक है और नफेसिंह का चचेरा भाई है, पर दलित चेतना से पूरी तरह हीन है, यहाँ तक कि वह बेहद स्वार्थी, धोखेबाज और दलित आंदोलन को तोड़ने वाला व्यक्‍ति है। उसका पूरी तरह नैतिक पतन हो चुका है। वह जहाँ भी जाता है नई-नई लड़कियों का शोषण करने से बाज़ नहीं आता। गौरतलब है कि महेश नामक यह व्यक्‍ति इस कदर कामांध है कि जानवरों तक से सेक्स-संबंध बना लेने में उसे कोई गुरेज नहीं है। यहाँ तक बात समझ में आती है। पर जब महेश अपने बड़े भाई गीहड़ा को जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर देने को कहता है तो गीहड़ा पहले तो उसे पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने को कहता है पर जब महेश नहीं मानता तो गीहड़ा उसे अपनी स्वयं की पत्‍नी यानी महेश की भाभी सौंप देता है और दरांती लेकर अपना लिंग काट लेता है ताकि वह स्त्री के लायक ही न रह जाए। गीहड़ा द्वारा ऐसा करने के पीछे कोई ठोस कारण नजर नहीं आता। ना ही कथानक के विकास में इस घटना का कोई योगदान है। उपन्यासकार ने इस प्रसंग को क्यों रखा है, समझ में नहीं आता।
इस रचना में अंबेडकर और मार्क्सवादियों के बीच उभरे मतभेदों की न केवल बेहतर पड़ताल की गई है बल्कि विमर्श के इस मह्त्त्वपूर्ण हिस्से को सार्थक और सर्जनात्मक तेवर भी प्रदान किया गया है। वर्ण बनाम वर्ग-संघर्ष में मुक्‍ति के पथ का सही रास्ता तलाश रहे हैं ‘मुक्‍ति-पथ’ के पात्र। वास्तव में अंबेडकरवादी एवं मार्क्सवादी मिलकर ही भारत में जाति-पाँति की दीवार को गिरा सकते हैं, वरना अपनी-अपनी लड़ाई कहकर अलग-अलग लड़ने से न तो सदियों से चली आ रही यह समस्या खत्म हो पाएगी और न ही भारत में सौमनस्य कायम हो सकेगा। उपन्यास का एक पात्र नफेसिंह कहता भी है- “दलित मुक्‍ति के पथ पर चलते हुए हमें अपने दोस्तों और दुश्मनों की ठीक से पहचान करनी होगी। हम अकेले दलित-उद्धार की लड़ाई नहीँ लड़ सकते। हमें अधिक से अधिक मित्रों और सहयोगियों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। जाहिर है, समाज की सभी जातियों और धर्मों के शोषित और दलित लोग हमारे स्वाभाविक साथी हैं, इसलिए हमें दलित अस्मिता को वर्ग-चेतना से जोड़ना है।” उपन्यास में कहा गया नफेसिंह का यह कथन गैर-बराबरी के खिलाफ़ और समतावादी समाज की स्थापना का सपना लेकर चल रहे सभी दलित विमर्शकारियों के लिए उनके मुक्‍ति-पथ का बीजकथन हो सकता है।
पूरा उपन्यास “जाति क्यों नहीं जाती?” के प्रश्‍न से जूझ रहा है। चाहे विश्‍वविद्यालय में अध्यापक बन जाइए, चाहे आईएएस या कुछ और, मनुष्य की जाति नहीं मरती बल्कि उसके ओहदे से पहले रहती है। जब डॉ. के.आर. नारायणन देश के राष्ट्रपति बने, प्रो. सुखदेव थोरात यूजीसी के चेयरमैन और के.जी. बालकॄष्णन सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, तब मीडिया ने उन्हें क्रमश: पहला दलित राष्ट्रपति, पहला दलित चेयरमैन और पहला दलित चीफ़ जस्टिस ही कहा था। रेखा-नफेसिंह प्रसंग के माध्यम से यह उपन्यास भी इसे गहराई से उठाता है। हालांकि नफेसिह विश्‍वविद्यालय में अध्यापक है पर चूंकि दलित जाति से है, इसलिए किसी तथाकथित उच्च जाति की लड़की से उसे प्रेम करने तक का अधिकार नहीं है, शादी तो दूर की चीज है। इस क्रम में रेखा-नफेसिंह पेम-प्रसंग बहुत रोचक बन पड़ा है, इसमें उच्च-जाति होने का अहंकार-बोध पाले परिवारों की कलई खोलकर रख दी गई है।
रचना का अंतिम हिस्सा भारत में समकालीन आरक्षण की राजनीति पर प्रकाश डालता है कि एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने और काम करने वाले ओबीसी और सवर्णों को भी मंडल कमीशन ने कैसे एक-दूसरे का विरोधी बना दिया।
जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, इस रचना की कहन बहुत रोचक है पर ऐसा लगता है कि उपन्यासकार जल्दबाजी में हैं। जो कहना है, उसे जल्दी से पेश कर देना चाहते हैं। उपन्यास पढ़ने के दौरान कई बार ऐसा लगता है। जैसे- छात्रों और वार्डेन से संबंधित प्रसंग। जब छात्रों द्वारा वार्डेन से कम मात्रा में और घटिया स्तर का खाना मिलने की शिकायत की जाती है तो वार्डेन व्यंग्य भरे लहजे में कड़वाहट के साथ कहता है- ‘अच्छा! घर में तो घास खाते थे, यहाँ पकवान माँगने लगे हो?’ इस पर छात्रों द्वारा वार्डेन के खिलाफ़ तुरंत नारेबाजी शुरु कर दी जाती है, मानो वे वास्तव में इसी के लिए निकले थे।
इसके बावजूद एक जागरुक पाठक को यह रचना इसलिए ज्यादा झिंझोड़ती है क्योंकि इसमें वास्तविकता के धरातल पर उपजी आज की परिस्थितियों पर न केवल गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया गया है, बल्कि उनके यथार्थवादी समाधान खोजने का भी ईमानदार प्रयास किया गया है। यह रचना भारत में दलित एवं प्रगतिशील आंदोलन की दशा एवं दिशा दोनों की गहरी पड़ताल करती नज़र आती है। यहाँ के हिन्दुवादी संगठन दलित आंदोलन को कुचलने के लिए किस हद तक जा सकते हैं और तो और महेश जैसे कुछ भटके हुए दलित युवकों का भी अपने अपने घृणित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, इसे उपन्यास में बेबाकी से पकड़ा गया है। हमें ऐसे महेशों से न केवल सावधान रहना है, बल्कि उन्हें राह पर भी लाना होगा।
इस रचना का अंत थोड़ा नाटकीय बल्कि फ़िल्मी हो गया है। जैसे- विधायक द्वारा रेखा और नफे के बच्चे मुक्‍तसिंह को उठाने के लिए आना ताकि उसे रेखा के पिता की जायदाद मिल सके। उसके द्वारा बच्चे की कनपटी पर रिवाल्वर तानकर जायदाद के कगज माँगना, इस क्रम में रेखा के पिता गुप्ता जी द्वारा बच्चे को खींचकर अपने पीछे छिपा लेना, हड़बड़ी में विधायक द्वारा गोली चलाना और भाग निकलना..अंतत: गुप्ता जी का अपनी बेटी व दलित-संदर्भ में प्रायश्‍चित करते हुए मरना...वाकई पूरा प्रसंग फ़िल्मी हो गया है, पर इससे रचना अस्वाभाविक नहीं होने पाई है।
बहरहाल, अपने सम्पूर्ण कलेवर में यह उपन्यास न केवल पठनीय है, बल्कि दलित-मुक्‍ति आंदोलन के लिए मददगार भी बन पड़ा है।

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