एक डॉक्टर हमारे समाज
का बेहद सम्मानित सदस्य होता है, इतना सम्मानित, कि हम सबने उसे ‘नेक्स्ट टू गॉड’ या ‘जीवित खुदा’ ही मान लिया है। बात में दम भी है, क्योंकि वह हम सबको जिंदगियां देने का काम करता है। कभी न
कभी हमारा साबिका उससे पड़ता ही है। परंतु जब यही ‘खुदा’ भ्रष्ट होकर, अपने ‘एथिक्स’ छोड़कर हम सबकी
जिंदगियों से खेलने लगें, तो समस्या बेहद डरावनी हो जाती है। माना कि भ्रष्टाचार एक ऐसा दीमक है, जो लगातार हमें खोखला-दर-खोखला बना रहा है – इससे जितनी जल्दी निजात मिले, उतना अच्छा – इसके बावजूद आर्थिक स्तर का
भ्रष्टाचार झेला जा सकता है, किंतु ऐसा
भ्रष्टाचार किसी कीमत पर नहीं सहा जा सकता, जो मनुष्य का जीवन ही लील ले।
‘सत्यमेव जयते’ का 27 मई, 2012 को प्रसारित एपिसोड मूलत: मेडिकल
प्रोफेशन से जुड़े उन लोगों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने का प्रयास करता है, जिन्होंने पैसा कमाने की सनक में भ्रष्टता का दामन थाम सारे मूल्य और मर्यादाएं ताक पर रख छोड़ी हैं। इसके साथ ही, इस शो के माध्यम से वही
पुरानी बहस भी उठ खड़ी हुई है कि, ‘निजीकरण के खिलाफ सरकारीकरण निर्माण का एक बेहतर विकल्प है।’ यही नहीं, यह शो अपने को ‘मेरिटोरियस’ घोषित करने वालों की विद्वता एवं नैतिकता पर भी सवाल उठाता है, जो पचास से साठ लाख डोनेशन देकर इस व्यवसाय में आते हैं, फिर जमकर आम लोगों के जीवन से
खेलते है, पैसे के लिए किसी की जान तक लेने में गुरेज नहीं करते।
एक तथ्य यह भी है कि आज के अधिकतर
डॉक्टर गांवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर अपनी सेवाएं नहीं देना
चाहते, वे उन बड़े शहरों में
प्रैक्टिस करते हैं, जहां कमाई के अवसर सर्वाधिक हैं। इसीलिए आज गांव सहित सुदूरवर्ती क्षेत्रों के लोगों को स्वास्थ्य
सुविधाओं के नाम पर सबसे ज्यादा
परेशानी का सामना करना पड़ता है। अगर मजबूरन वहां जाना ही पड़े तो कुछ वैसा ही होता है, जैसा आंध्र प्रदेश के एक गांव में किया गया। वहां बड़ी संख्या में ग्रामीण महिलाओं की बच्चेदानी यानी गर्भाशय निकाल दिये गये, जबकि किसी भी मरीज को इसकी जरूरत नहीं थी। यों भ्रष्ट
डॉक्टरों का यह नेक्सस सिर्फ दूर-दराज तक सीमित नहीं है। दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रोपोलिटन शहरों तक में इनका बेहद मजबूत जाल फैला है। कुछ समय पूर्व सुर्खियों में रहे ‘किडनी रैकेट’ का खुलासा जनता भूली नहीं है।
असल में, हमारे यहां डॉक्टर और मरीज के बीच पहले जो एक सेवाभावी संबंध होता था, उसका लोप हो चुका है। सरकारी कहे जाने वाले गिनती के अस्पतालों की हालत तो खुद एक लाइलाज मर्ज के रोगी जैसी हो चली है। जहां या तो पर्याप्त चिकित्सक नहीं हैं… अगर हैं, तो समय पर मौजूद
नहीं रहते। तिस पर रोगियों की बेहिसाब संख्या और डॉक्टरों की झुंझलाहट, उनका तिरस्कारपूर्ण
गैर-सहयोगी रवैया। एक कहावत है कि ‘दाई से पेट नहीं
छिपाना चाहिए’, परंतु क्या ऊपर
इंगित स्थितियों में कोई मरीज साफ-साफ अपनी हालत किसी सरकारी डॉक्टर के आगे बयां कर सकता है भला! ऐसे में, डॉक्टर अपनी मर्जी और मेहरबानी
से जो भी दवा लिख दे, जैसा भी इलाज कर दे। ‘गरीब’ मरीज में इतनी हिम्मत
कहां है कि अपने चिकित्सक से कुछ पूछ ले? पैसे वाले लोग तो खैर इस देश में
अपना इलाज कराते ही नहीं हैं। अगर जरूरत पड़ ही गयी तो प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं। जहां प्राय: मरीज का मतलब ‘क्लाइंट’ होता है, बल्कि ‘शिकार’ कहें तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा। वहां बातें तो मृदु ढंग से की जाएंगी, पर मरीज को उसके रोग की असलियत उतनी नहीं बतायी जाएगी, ‘पैनिक’ किया जाएगा।
मेडिकल की यह दुनिया है ही इतनी भयावह
कि वह गरीब और अमीर में कोई भेद नहीं करती। एक तो सामान्य मनुष्य रोगों की
गंभीरता, उनके दुष्प्रभावों तथा
चिकित्सकों द्वारा किये गये इलाज की बारीकियों से लगभग अपरिचित होता है। दूसरे, किसी भी कीमत पर
जीना चाहता है। बस यही चाहत और ‘अज्ञान’ उसको मेडिकल की दुनिया का आसान शिकार बना देते हैं। एक बार
आदमी डॉक्टरों के चंगुल में आ जाए, चाहे वह वास्तव में बीमार हो या न हो, सबसे पहले उसके जरूरी और गैर-जरूरी ‘टेस्ट’ कराये जाएंगे, इसके बाद महंगी से महंगी दवाएं लिखी
जाएंगी, कई बार ऑपरेशन की जरूरत न पड़ने पर भी कर डाला जाएगा, इसके बाद कई दिनों
तक ‘ऑब्जर्वेशन’ के नाम पर अस्पताल में रख लिया जाएगा। डॉक्टर के
पास जाने से लेकर किसी तरह वहां से छूटने तक हरेक पायदान मरीज के लिए लूट की जगह है।
शो के दौरान इस व्यवसाय से
जुड़ी कई गंभीर बातों का भी पता चला, जैसे – जेनेरिक मेडिसन
यानी सामान्य दवाएं (जिनके मूल्य पर सरकारी नियंत्रण
होता है, इसीलिए वे पेटेंट दवाओं, जिनका मूल्य दवा-कंपनी खुद तय करती है, के मुकाबले बेहद सस्ती होती हैं), जो आसानी से आम आदमी की पहुंच के दायरे में होती हैं, पर आमतौर पर
डॉक्टर उन्हें नहीं लिखता। वह मरीज की जेब और
जिंदगी लूटने का इतना आदी हो चुका है कि उसे अब किसी की जान जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। बस उसकी जेब भरती जानी चाहिए। साथ ही, इस व्यवस्था में लगे
पूरे कमीशनखोर तंत्र की भी। और तो और, देशभर में मौजूद चिकित्सा-विभागों
की पूरी व्यवस्था पर निगरानी रखने वाली संस्था ‘मेडिकल काउंसिल इंडिया’ का पूर्व-प्रमुख ही जब भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया हो, तो विश्वास किस पर करें? जब ‘रक्षक ही भक्षक’ की भूमिका में आ जाए, तो आदमी शिकायत किससे करे!
बल्कि काउंसिल का प्रमुख कोई भी रहे, इस संस्था की कार्यशैली हमेशा संदेहास्पद ही रही है। सन 2008 से लेकर अब तक देशभर में एक भी डॉक्टर का स्थायी तौर पर लाइसेंस रद्द न होना क्या संकेत करता है, जबकि भ्रष्ट और जानबूझ
कर लापरवाही करने वाले चिकित्सकों की शिकायत प्राय: एमसीआई तक पहुंचती रही है। हम अमेरिका और इंग्लैंड से इस मामले में सीख क्यों नहीं लेते, जहां न केवल स्वास्थ्य सेवाएं बेहद मजबूत हैं, बल्कि वहां के निगरानी-बोर्ड भी उतने ही सतर्क हैं। जाहिर है, ऐसे भ्रष्ट चिकित्सक बिना डिग्री के
अधकचरी जानकारी लेकर इलाज करने वाले नीम-हकीम और फर्जी डिग्री लेकर डॉक्टर बन गये ‘मुन्ना भाइयों’ से किसी भी हालत में कम नहीं हैं। ये सब मिलकर अंतत: आम मनुष्य को इलाज के नाम पर मौत में मुंह में ही तो धकेल रहे हैं।
इसके बाद भी, ऐसा नहीं है कि हमें इस क्षेत्र में बेहतरी की आस ही छोड़ बैठना चाहिए अथवा मान लेना चाहिए कि देश में स्वास्थ्य-विभाग नाम के संपूर्ण कुएं में ही भांग पड़ चुकी
है। इसी विभाग में बेंगलूरु स्थित नारायण ह्रदयालय के डॉ देवी शेट्टी और
जयपुर, राजस्थान के डॉ शमित शर्मा
जैसे लोग भी मौजूद हैं। डॉ शेट्टी ने जहां अपने प्रयासों से गरीबों हेतु विभिन्न स्कीमों के जरिये महंगे और मुश्किल ऑपरेशनों को सरल और सस्ता बनाया है, वहीं डॉ शमित शर्मा ने राजस्थान भर में जेनेरिक दवाओं के स्टोर खुलवाकर महंगी दवाओं से आम जनता को निजात दिलाने का सुप्रयास किया है। सारे देश में इन देवी शेट्टी एवं शमित शर्मा जैसे कुछ
लोग और हो जाएं, जिन्हें सरकार का भी भरपूर सहयोग मिल सके, तो इस देश में स्वास्थ्य सेवाओं की तस्वीर बदल सकती है।
(29/05/2012 को मोहल्ला लाइव में प्रकाशित आलेख: http://mohallalive.com/2012/05/29/jai-kaushal-on-satyamev-jayate-medical-crime-report/)
1 comment:
बहुत बेहतरीन आलेख काफी जानकारी मिली
Post a Comment