हिन्दी कहानी में अजय श्रीवास्तव एक जाना पहचाना नाम है। 'मकान, कमरे और घर' उनका पहला कहानी संग्रह है, जिसमें पिछले तीन दशकों से लिखी गई सोलह कहानियाँ संकलित हैं। अजय की कहानियाँ आम मेहनतकश वर्ग, जो किसी न किसी रूप में शोषण का शिकार है, से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं। संग्रह की पहली रचना 'बड़ा आदमी' किसान- मजदूर एकता को रेखांकित करने वाली वामपंथी रुझान की कहानी है, जो 'बड़ेपन' के उस फ्रेम को तोड़ती है जिसके अनुसार पैसा, प्रभुत्व या ओहदाधारी आदमी ही बड़ा होता है। शंकर नाम का एक साधारण युवक फैक्ट्री से निकाले जाने के बाद जब युसूफ़ मियाँ के सहयोग से किसान- मजदूरों को इकट्ठा कर फैक्ट्री मालिक तथा जंमीदार प्रधान के विरुद्ध हड़ताल का सफल आयोजन करता है। कहानी संकेत करती है कि किसान- मजदूरों के लिए आवाज उठाने वाला, उनमें अधिकार-बोध जगाने वाला इंसानियत के दुश्मनों के खिलाफ़ लड़ने वाला शंकर ही वास्तव में 'बड़ा' आदमी है।
जिस तरह सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते पर चंद लोगों के किए की सज़ा गाहे- बगाहे आम मुसलमान को झेलनी पड़ती है, उसी तरह सारे सिख उग्रवादी नहीं होते, न वे किसी भिंडरेवाले के समर्थक होते हैं और ना ही उन्हें खालिस्तान चाहिए, इसके बावजूद सिख होना उनके लिए समस्या बन जाता है, उन पर फ़िकरे कसे जाते हैं, तंग किया जाता है। 'नया सवेरा' कहानी इसी को आधार बनाकर लिखी गई है। प्राय: बहुसंख्यक अस्मिता अल्पसंख्यक अस्मिता के लिए उत्पीड़नकारी बन जाया करती है, साथ ही चंद सियासी लोग इसका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में भी करने लगते हैं| भारतीय समाज का इतिहास ही देखें तो यहाँ हिन्दु बनाम मुस्लिम, हिन्दु बनाम सिख, उच्च जाति बनाम निम्न जाति के दंगे भड़कते रहें है। सन 84 के दंगों से लेकर गुजरात और गोहाना इसके ताजा उदाहरण हैं। कहानी ठीक ही कहती है- प्रवासी कहीं सुरक्षित नहीं है। संग्रह की अगली कहनी 'लैटर बॉक्स' शीर्षक से है। पहले कितनी चिट्ठियाँ आया-जाया करती थीं, डाक विभाग हमेशा दबाव में रहता था। डाकिया देखते ही लोग उत्सुकतावश उसे रास्ते में ही घेर लेते थे। पर सूचना-क्रांति के बाद से तो मानो डाकियों, चिट्ठियों और लैटरबॉक्स की उपयोगिता ही खत्म हो गई है, उसी तरह जैसे आजकल पनघट खत्म हो चले हैं। जबकि पहले यही गाँव की गतिविधि का मुख्य हिस्सा हुआ करते थे। कहानी बताती है कि बरसों से गाँव की पहचान बने लैटरबॉक्स के उखड़ जाने से वहाँ की गतिविधियाँ कैसे डगमगा जाती हैं। 'समय और संकल्प' जहाँ महँगाई से दिन-ब-दिन टूटते परिवार की पीड़ा औए अंतत: उससे उबरने की कहानी है वहीं' मुख्यमंत्री और फेलूराम' किसी अनपढ़ व्यक्ति के राजनीति में आ जाने के बाद होने वाली दुर्दशा पर व्यंग्य है।
संग्रह की अगली कहानी है- रोजनामचा। एक निम्न आयवर्ग वाला व्यक्ति अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को कैसे काट- काटकर जीता है, इस पर आधारित है। बच्चू एक ऑफिस में बाबू है। मई आ गई है पर वह अभी तक अपने लिए एक जोड़ा चप्पल नहीं खरीद पाए हैं । बजट आने से अब दाम बढ़ गया है। इधर तेलपूल में घाटा होने से सरकार पैट्रोलियम पदार्थों के दाम भी बढ़ाने जा रही है, इससे सारी चीजें महँगी हो चुकी हैं। बच्चू जैसे लोगों को गोदान के होरी की तरह थोड़ी- बहुत बेईमानी अनैतिक नहीं लगती क्योंकि पार ही नहीं पड़ती। बच्चू भी हर बार घर से दफ़्तर आते- जाते समय बस का किराया बचाना चाहता है इसीलिए गुंडे किस्म के लगने वाले कंडक्टर से मेलजोल बढ़ाने की सोचता है। इसी बीच फरमान की तरह सबको कम्प्यूटर सीखने की सूचना मिलती है, बच्चू का मूड और उखड़ जाता है। किन्तु पैसे-पैसे के लिए तरसने वाला बच्चू रोज सिगरेट पीता है, किश्तों पर रंगीन टीवी ले लेता है, यहाँ तक कि सौ रुपए प्रतिमास का केबल भी लगवा लेता है पर अपने लिए एक जोड़ा चप्पलें नहीं खरीद पाता, यह बात समझ में नहीं आती। साहब के बँगले से लेकर दफ़्तर में सफाई करनेवाला और
हर बार लोन के लिए अर्ज़ी देनेवाला कालीचरण सबकी निगह में अजीब आदमी क्यों है, कहानी से इसका पता नहीं चलता। कहानीकार द्वारा इस चरित्र को और स्पष्ट करना चाहिए था।
अजय की अधिकतर कहानियाँ सत्ता या सरकार की अनदेखी और आर्थिक दृष्टि से लोगों के जूझने की कहानियाँ हैं। 'गुमशुदा' और 'सड़क' इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। 'सड़क' का जगमोहन बेरोजगारी और माँ की बीमारी से टूट-सा गया है। कारण बुरी तरह टूटी सड़क है, जिसे बहुत दिनों से सरकार द्वारा बनवाया नहीं गया था और अब उसे मरम्मत के लिए बंद कर दिया गया था। इसी बीच माँ की
तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई और वह उन्हें समय पर शहर ले जाकर दिखा नहीं पाया और माँ ने दम तोड़ दिया। सड़क के कारण ही वह अपना स्टाफ़ सलेक्शन कमीशन का एक्ज़ाम नहीं दे पाया क्योंकि ऐन परीक्षा वाले दिन उसे लेकर शहर जा रही बस का अचानक ब्रेकडाउन हो जाता है। इसी तरह गुमशुदा भी एक बेरोजगार युवक की कहानी है, जो शहर जाकर कुछ काम- धन्धा करना चाहता है पर आते ही शहर घूमने की जल्दबाजी में होटल का पता ही भूल जाता है, जहाँ वह अपने प्रमाणपत्रों और कपड़ों से भरा सूटकेस छोड़कर निकला था। अंतत: शहर में ही गुमशुदा की तरह रहकर अपना भाग्य आजमाने की ठान लेता है।
'तरक्की की निशानी' इस संग्रह की अच्छी कहानियों में एक है। पूर्व की दुर्घटना कैसे आदमी को इस कदर भीरु बना देती है कि छोटी-सी घटना से भी वह मनोरोगी की तरह बर्ताव करने लगता है। पहले सइदुल्ला नाई का परिवार मोदीनगर में रहता था, जहाँ दंगे में उसके पिता और बहन की ह्त्या कर दी
जाती है। किसी तरह सइदुल्ला पत्नी और ब्च्चों के साथ सार्वजनिक शौचालय में छिपकर जान बचाता है। इसके बाद सइदुल्ला नाई मीरनपुर गाँव में आ बसता है। गाँव को देखते हुए उसकी दुकान थोड़ी आधुनिक लगती है। उसकी दुकान पर युवा ग्राहकों की अक्सर भीड़ लगी रहती है, वे दुकान को गाँव में 'तरक्की की निशानी' मानते हैं, पर एक तो सइदुल्ला का मुसलमान होना, दूसरे उसकी दूकान खूब चलना लोगों को रास नहीं आ रहा। इसीलिए पड़ौसी दुकानदार लाला सालिगराम गाँव के चौधरी रामपत के कान भर देता है कि सइदुल्ला लड़कों को बरगलाता है, उन्हें कम्युनिस्ट बना रहा है। अपने खिलाफ़ यह छोटी सी अफ़वाह भी सइदुल्ला की जान सुखा डालती है। परिवार पर फिर से हमले और उजड़ जाने के डर में वह मनोरोगी की तरह व्यवहार करने लगता है। यह कहानी एक दंगा पीड़ित
व्यक्ति की मानसिकता का बहुत अच्छा चित्रण करती है। 'अदावत' इस संग्रह की सबसे गंभीर और बदलते समय की नब्ज़ को पहचानने वाली कहानी है। पहले तथाकथित उच्च जाति के दबंग लोग दलितों पर किस प्रकार अत्याचर किया करते थे, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करना आम बात थी, यहाँ तक कि पुलिस भी उनका सहयोग करती थी। पर अब स्थितियाँ बदल चुकी हैं। लीडर नाम का एक नशेड़ी युवक गाँव की दलित लड़की परबतिया की इज्जत लूटना चाहता है। अपने इस प्लान में वह पुलिस को भी शामिल कर लेता है और अपने विरोधी के बेटे द्वारा परबतिया के ब्लात्कार की झूठी खबर उड़ा देता है। लीडर व दरोगा जब इस बाबत दलित बस्ती में आते हैं तो बस्ती के युवक भयभीत होने के बजाय उनसे उल्टे जवाब-तलब करने लगते हैं औए लीडर को पीटने तक का मन बना लेते हैं। तब लीड़र और पुलिस को समझ में आता है कि वक्त अब पहले जैसा नहीं रहा। अब दलितों को ऐसे ही मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। शिक्षा और चेतना ने उनमें अधिकार-भावना जगा दी है।
जिस तरह सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते पर चंद लोगों के किए की सज़ा गाहे- बगाहे आम मुसलमान को झेलनी पड़ती है, उसी तरह सारे सिख उग्रवादी नहीं होते, न वे किसी भिंडरेवाले के समर्थक होते हैं और ना ही उन्हें खालिस्तान चाहिए, इसके बावजूद सिख होना उनके लिए समस्या बन जाता है, उन पर फ़िकरे कसे जाते हैं, तंग किया जाता है। 'नया सवेरा' कहानी इसी को आधार बनाकर लिखी गई है। प्राय: बहुसंख्यक अस्मिता अल्पसंख्यक अस्मिता के लिए उत्पीड़नकारी बन जाया करती है, साथ ही चंद सियासी लोग इसका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में भी करने लगते हैं| भारतीय समाज का इतिहास ही देखें तो यहाँ हिन्दु बनाम मुस्लिम, हिन्दु बनाम सिख, उच्च जाति बनाम निम्न जाति के दंगे भड़कते रहें है। सन 84 के दंगों से लेकर गुजरात और गोहाना इसके ताजा उदाहरण हैं। कहानी ठीक ही कहती है- प्रवासी कहीं सुरक्षित नहीं है। संग्रह की अगली कहनी 'लैटर बॉक्स' शीर्षक से है। पहले कितनी चिट्ठियाँ आया-जाया करती थीं, डाक विभाग हमेशा दबाव में रहता था। डाकिया देखते ही लोग उत्सुकतावश उसे रास्ते में ही घेर लेते थे। पर सूचना-क्रांति के बाद से तो मानो डाकियों, चिट्ठियों और लैटरबॉक्स की उपयोगिता ही खत्म हो गई है, उसी तरह जैसे आजकल पनघट खत्म हो चले हैं। जबकि पहले यही गाँव की गतिविधि का मुख्य हिस्सा हुआ करते थे। कहानी बताती है कि बरसों से गाँव की पहचान बने लैटरबॉक्स के उखड़ जाने से वहाँ की गतिविधियाँ कैसे डगमगा जाती हैं। 'समय और संकल्प' जहाँ महँगाई से दिन-ब-दिन टूटते परिवार की पीड़ा औए अंतत: उससे उबरने की कहानी है वहीं' मुख्यमंत्री और फेलूराम' किसी अनपढ़ व्यक्ति के राजनीति में आ जाने के बाद होने वाली दुर्दशा पर व्यंग्य है।
संग्रह की अगली कहानी है- रोजनामचा। एक निम्न आयवर्ग वाला व्यक्ति अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को कैसे काट- काटकर जीता है, इस पर आधारित है। बच्चू एक ऑफिस में बाबू है। मई आ गई है पर वह अभी तक अपने लिए एक जोड़ा चप्पल नहीं खरीद पाए हैं । बजट आने से अब दाम बढ़ गया है। इधर तेलपूल में घाटा होने से सरकार पैट्रोलियम पदार्थों के दाम भी बढ़ाने जा रही है, इससे सारी चीजें महँगी हो चुकी हैं। बच्चू जैसे लोगों को गोदान के होरी की तरह थोड़ी- बहुत बेईमानी अनैतिक नहीं लगती क्योंकि पार ही नहीं पड़ती। बच्चू भी हर बार घर से दफ़्तर आते- जाते समय बस का किराया बचाना चाहता है इसीलिए गुंडे किस्म के लगने वाले कंडक्टर से मेलजोल बढ़ाने की सोचता है। इसी बीच फरमान की तरह सबको कम्प्यूटर सीखने की सूचना मिलती है, बच्चू का मूड और उखड़ जाता है। किन्तु पैसे-पैसे के लिए तरसने वाला बच्चू रोज सिगरेट पीता है, किश्तों पर रंगीन टीवी ले लेता है, यहाँ तक कि सौ रुपए प्रतिमास का केबल भी लगवा लेता है पर अपने लिए एक जोड़ा चप्पलें नहीं खरीद पाता, यह बात समझ में नहीं आती। साहब के बँगले से लेकर दफ़्तर में सफाई करनेवाला और
हर बार लोन के लिए अर्ज़ी देनेवाला कालीचरण सबकी निगह में अजीब आदमी क्यों है, कहानी से इसका पता नहीं चलता। कहानीकार द्वारा इस चरित्र को और स्पष्ट करना चाहिए था।
अजय की अधिकतर कहानियाँ सत्ता या सरकार की अनदेखी और आर्थिक दृष्टि से लोगों के जूझने की कहानियाँ हैं। 'गुमशुदा' और 'सड़क' इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। 'सड़क' का जगमोहन बेरोजगारी और माँ की बीमारी से टूट-सा गया है। कारण बुरी तरह टूटी सड़क है, जिसे बहुत दिनों से सरकार द्वारा बनवाया नहीं गया था और अब उसे मरम्मत के लिए बंद कर दिया गया था। इसी बीच माँ की
तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई और वह उन्हें समय पर शहर ले जाकर दिखा नहीं पाया और माँ ने दम तोड़ दिया। सड़क के कारण ही वह अपना स्टाफ़ सलेक्शन कमीशन का एक्ज़ाम नहीं दे पाया क्योंकि ऐन परीक्षा वाले दिन उसे लेकर शहर जा रही बस का अचानक ब्रेकडाउन हो जाता है। इसी तरह गुमशुदा भी एक बेरोजगार युवक की कहानी है, जो शहर जाकर कुछ काम- धन्धा करना चाहता है पर आते ही शहर घूमने की जल्दबाजी में होटल का पता ही भूल जाता है, जहाँ वह अपने प्रमाणपत्रों और कपड़ों से भरा सूटकेस छोड़कर निकला था। अंतत: शहर में ही गुमशुदा की तरह रहकर अपना भाग्य आजमाने की ठान लेता है।
'तरक्की की निशानी' इस संग्रह की अच्छी कहानियों में एक है। पूर्व की दुर्घटना कैसे आदमी को इस कदर भीरु बना देती है कि छोटी-सी घटना से भी वह मनोरोगी की तरह बर्ताव करने लगता है। पहले सइदुल्ला नाई का परिवार मोदीनगर में रहता था, जहाँ दंगे में उसके पिता और बहन की ह्त्या कर दी
जाती है। किसी तरह सइदुल्ला पत्नी और ब्च्चों के साथ सार्वजनिक शौचालय में छिपकर जान बचाता है। इसके बाद सइदुल्ला नाई मीरनपुर गाँव में आ बसता है। गाँव को देखते हुए उसकी दुकान थोड़ी आधुनिक लगती है। उसकी दुकान पर युवा ग्राहकों की अक्सर भीड़ लगी रहती है, वे दुकान को गाँव में 'तरक्की की निशानी' मानते हैं, पर एक तो सइदुल्ला का मुसलमान होना, दूसरे उसकी दूकान खूब चलना लोगों को रास नहीं आ रहा। इसीलिए पड़ौसी दुकानदार लाला सालिगराम गाँव के चौधरी रामपत के कान भर देता है कि सइदुल्ला लड़कों को बरगलाता है, उन्हें कम्युनिस्ट बना रहा है। अपने खिलाफ़ यह छोटी सी अफ़वाह भी सइदुल्ला की जान सुखा डालती है। परिवार पर फिर से हमले और उजड़ जाने के डर में वह मनोरोगी की तरह व्यवहार करने लगता है। यह कहानी एक दंगा पीड़ित
व्यक्ति की मानसिकता का बहुत अच्छा चित्रण करती है। 'अदावत' इस संग्रह की सबसे गंभीर और बदलते समय की नब्ज़ को पहचानने वाली कहानी है। पहले तथाकथित उच्च जाति के दबंग लोग दलितों पर किस प्रकार अत्याचर किया करते थे, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करना आम बात थी, यहाँ तक कि पुलिस भी उनका सहयोग करती थी। पर अब स्थितियाँ बदल चुकी हैं। लीडर नाम का एक नशेड़ी युवक गाँव की दलित लड़की परबतिया की इज्जत लूटना चाहता है। अपने इस प्लान में वह पुलिस को भी शामिल कर लेता है और अपने विरोधी के बेटे द्वारा परबतिया के ब्लात्कार की झूठी खबर उड़ा देता है। लीडर व दरोगा जब इस बाबत दलित बस्ती में आते हैं तो बस्ती के युवक भयभीत होने के बजाय उनसे उल्टे जवाब-तलब करने लगते हैं औए लीडर को पीटने तक का मन बना लेते हैं। तब लीड़र और पुलिस को समझ में आता है कि वक्त अब पहले जैसा नहीं रहा। अब दलितों को ऐसे ही मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। शिक्षा और चेतना ने उनमें अधिकार-भावना जगा दी है।
'कहानी का प्लाट' एक नये शिल्प की रचना है जो गोर्की के कथा-शिल्प याद दिलाती है। अजय की कहानियों का अंत विचार करने योग्य है। अक्सर इनका कथानायक अन्तर्द्वंद्व में रहता है। पहले नकारत्मक स्थितियों पर सोचते हुए आशंकित दिखाई देता है परन्तु रचना के अंत में अचानक कुछ देखकर आश्वस्त भी हो जाता है, 'नया सवेरा' का उजागर सिंह, 'समय और संकल्प' का कौशल, 'बीवी और मकान' का चाहतराम, 'रोजनामचा' के बच्चू बाबू, 'तरक्की की निशानी' का सइदुल्ला, 'अंधेरा और काली छाया' का राज ऐसे ही आशंका से आश्वस्ति की यात्रा करते पात्र हैं। शायद इसीलिए उनकी कहानियों में व्याप्त विडम्बना गहरे तक नहीं जा पाती। इसके बावजूद इनकी कहानियों में मौजूद ' प्रतीक्षा अंतत: सकारात्मक ऊर्ज़ा में तब्दील हो जाती है।
'मकान, कमरे और घर' इस संग्रह की अंतिम कहानी है। जो कॉल- सेंटर में दिन-रात काम करने वालों की पीड़ा-कथा है। कॉल- सेंटरों में कार्यरत युवा न तो समय पर खा पाते हैं, न समय पर सो ही पाते हैं । कुल मिलाकर उनकी जिन्दगी सिस्टेमेटिक नहीं रह पाती और यही इस कहानी की मूल- संवेदना है। कॉल- सेंटर में काम करने वाले शेखर की भी यही हालत है, जबकि उसकी भाभी शेखर की जीवनशैली सिस्टेमेटिक करने पर तुली है। एक मकान, कमरे और घर में क्या अंतर होता है, यह कहानी से बखूबी बयाँ होता है। संग्रह का शीर्षक भी यही है।
'मकान, कमरे और घर' इस संग्रह की अंतिम कहानी है। जो कॉल- सेंटर में दिन-रात काम करने वालों की पीड़ा-कथा है। कॉल- सेंटरों में कार्यरत युवा न तो समय पर खा पाते हैं, न समय पर सो ही पाते हैं । कुल मिलाकर उनकी जिन्दगी सिस्टेमेटिक नहीं रह पाती और यही इस कहानी की मूल- संवेदना है। कॉल- सेंटर में काम करने वाले शेखर की भी यही हालत है, जबकि उसकी भाभी शेखर की जीवनशैली सिस्टेमेटिक करने पर तुली है। एक मकान, कमरे और घर में क्या अंतर होता है, यह कहानी से बखूबी बयाँ होता है। संग्रह का शीर्षक भी यही है।
8 comments:
Swagat hai...bahut achhee jaankaaree..
bahut achha prayas.
subhkamnaye.
अच्छी लगी ये समीक्षा । आपका स्वागत है। "आपको भी होली की शुभकामनाएँ
आप और आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ...nice
badhaaiyan..........
shubhkaamnayen....
इस नए चिट्ठे के साथ आपको हिंदी चिट्ठा जगत में आपको देखकर खुशी हुई .. सफलता के लिए बहुत शुभकामनाएं !!
manoram hai.. badhaai...
sunder aur supathya tarike se paroshane ke liye dhanyawad !
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