Tuesday, May 15, 2012

उम्र का नहीं, बर्ताव का आदर करें!


अगर संदेह करना आधुनिकता का जरूरी लक्षण है, तो अब हमें रिश्तों के स्तर पर आधुनिक होने की सख्त ज़रूरत आन पड़ी है। खासकर जब हम खुद को एक जिम्मेदार माँ-बाप, परिजन अथवा अभिभावक मानते हों। आमिर ख़ान द्वारा 13 मई, 2012, रविवार को ‘बाल यौन शोषण’ पर आधारित ‘सत्यमेव जयते’ के दूसरे एपिसोड से यही स्पष्ट होता है। इस शो में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, नई दिल्ली द्वारा 2007 में जारी रिपोर्ट के आँकड़ों का उपयोग भी किया गया, जिससे पता चलता है कि पूरी दुनिया के 19 % बच्चे सिर्फ़ भारत में रहते हैं। 2001  की जनगणना के अनुसार हमारे देश में कुल जनसंख्या का 42 % हिस्सा अठारह वर्ष से कम उम्र का है, यानी प्रत्येक दस में से चार। भयावह तथ्य यह है कि देश में 53 % बच्चे किसी न किसी रूप में यौन उत्पीड़न का शिकार रहे हैं, अर्थात अठारह वर्ष की उम्र तक हर दूसरा बच्चा शारीरिक और मानसिक स्तर पर शोषण से गुजर चुका है। सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि लड़के और लड़कियाँ, दोनों इसमें बराबर के शिकार हुए हैं। जबकि आम धारणा में लड़कों को यौन शोषण से परे माना जाता है। आलेख के शुरू में नजदीकी रिश्तों पर संदेह जताने का आधार भी शो में इस मुद्दे पर हुए विश्लेषण के साथ मंत्रालय की उक्त रिपोर्ट भी है, जिसमें साफ़ बताया गया है कि बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों मे अपराधी कोई न कोई जानकार अथवा रिश्तेदार होता है, जिसे आमतौर पर माँ-बाप शक की निगाह से नहीं देखते और बच्चा आसानी से शिकार बन जाता है। यही कारण है कि ऐसे ज्यादातर मामले या तो संज्ञान में ही नहीं आते, अगर कोई बच्चा बताने की हिम्मत भी जुटाता है तो माता-पिता उस पर विश्वास नहीं करते और कर भी लें, तो उन्हें उजागर नहीं करते, पुलिस तक नहीं ले जाते। चूंकि अपराध करने वाला घर-परिवार का उम्रदराज  और ‘इज्जतदार’ सदस्य होता है अथवा कोई नजदीकी जानने वाला, इसलिए अभिभावक प्राय: उससे सीधे कुछ नहीं कहते। समाज में अपनी तथाकथित ‘इज्जत’ की अवधारणा के चलते घर में ही दबा लेते हैं। यदि कोई परिजन इस मामले को आगे बढ़ाने की पहल भी करता है तो अस्पताल से लेकर पुलिस, प्रशासन और कोर्ट तक का रवैया पीड़ित के प्रति सहयोगी का उतना नहीं, जितना पीड़क का बनता जाता है। ऐसे में पीड़ित परिवार चुप्पी लगाना अधिक ठीक समझता है।
देश में बाल यौन अपराधों पर आज तक एक भी मजबूत कानून का न होना यह सिद्ध करता है कि हमने इस मुद्दे को महत्व कितना-सा दिया है? ऐसे अपराध अंतत: हमारे समाज में एक-दूसरे पर ‘भरोसे’ को लगातार कम कर रहे हैं। हमारे बीच ‘विश्वास’ या ‘भरोसा’ जैसे शब्दों का दायरा निरन्तर संकुचित होता जा रहा है। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि हमें बड़ी उम्र का नहीं अच्छे व्यवहार का सम्मान करना चाहिए। हमारे पारम्परिक आदर्शवादी मन को यह सुनने और स्वीकारने में अटपटा लग सकता है, पर समय आ गया है कि हम अपने बच्चों को ‘अपने से बड़ी उम्र के हर व्यक्ति का आदर करना चाहिए’ नामक संस्कार देना छोड़ ही दें, बल्कि आपसी रिश्तों में भी विवेक के इस्तेमाल की सलाह दें।
दूसरे, हमारी मानसिकता भी ऐसी हो चली है कि जब हमें किसी ऐसे व्यक्ति का पता चलता है, जो यौन उत्पीड़न का शिकार हुआ है, तब अव्वल तो हम उसे एकदम बेचारा मानने लगते हैं, उसका भाग्य कोसने लगते हैं, या फ़िर सारा आरोप उसी पर मढ़ देते हैं। बच्चों सहित लड़कियों पर यह सितम ज्यादा देखने में आता है। यों भी, बच्चों के शोषण से शुरू हुआ यह मुद्दा केवल उन्हीं तक नहीं रुक जाता। स्त्रियों तक भी चला आता है, क्योंकि आमतौर पर बच्चे और स्त्रियाँ अपराध के लिए सबसे आसान शिकार होते हैं और अपराधी प्राय: मनोरोगी पुरुष। चाहे ‘पीडोफीलिक’ मानसिकता के अपराधी हों अथवा किसी परिवार या समुदाय से कोई रंजिश चुकाने के आकांक्षी, शिकार मासूम बच्चे और महिलाएँ ही बनाए जाते हैं। आपसी झगड़े तक में अकसर माँ-बहन से संबंधित गालियाँ देना इसी बात को पुष्ट करता है। भारत में उम्रदराज़ पुरुषों द्वारा बच्चों और स्त्रियों पर यौन-दुराचार के जितने मामले पाए जाते है, यौन मनोरोगी औरतों द्वारा बच्चों पर उत्पीड़न के मामले लगभग नहीं मिलते। यद्यपि, आजकल पश्चिम में इसे देखा जा रहा है।
रविवार के शो में आपबीती सुनाने आए हरीश के बारे में कुछ विद्वान ‘खुलासा’ कर रहे हैं कि ‘ये वही हरीश अय्यर हैं, जिन्हें विगत 29 अप्रैल को आई बी एन सेवन पर प्रसारित ‘जिंदगी लाइव’ में देखा गया था और जहां वो गर्व के साथ कह रहे थे मैं ‘गे’ हूँ।’  ‘इनकी माँ को भी इस बात का गर्व था कि ये समलैंगिक हैं।’  समझ में नहीं आता ऐसा कहकर आलोचक-गण क्या सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं! क्या ये, कि वास्तव में हरीश ‘गे’ है और बाल यौन शोषण का शिकार बताकर अपने ‘अपराध’ की सामजिक स्वीकृति एवं सहानुभूति ‘जस्टिफाई’ करना चाहता है! उसकी माँ भी उसके ‘गे’ होने को बढ़ावा दे रही है। जाने क्यों, ऐसे ‘चिंतक’ हरीश की समस्या को ‘जेनुइन’ नहीं मानना चाहते हैं! न ही उसकी आज की स्थिति को (अगर वह ‘गे’ है भी) उसके बचपन के शोषण से जोड़कर देखना चाह रहे हैं? संभव है, किसी व्यक्ति के समलैंगिक होने के पीछे उसके शारीरिक, मानसिक अथवा अन्य कारण जिम्मेदार होते हों, पर इस मामले को आरोप के घेरे में लाने से पूर्व जरा सोच लेना जरूरी है।
सच यह है कि शो में आए हरीश अय्यर सहित गणेश और सिंड्रैला, तीनों को देखकर बार-बार लग रहा था, मानो शारीरिक स्तर पर उन स्थितियों को पीछे छोड़ आने के बावजूद मानसिक स्तर पर वे आज भी अपने से लगातार जूझ रहे हैं। जैसे वे सब उम्र में तो बड़े हो गए हैं, पर मन से अभी भी उतने ही कच्चे और असहाय हैं। बचपन में तन पर मिले घाव तो शायद समय के साथ भर गए, किन्तु मन के घाव आज भी न केवल हरे हैं, बल्कि बीच-बीच में रिसने तक लगते हैं।
ऐसे बच्चों का न तो स्वस्थ मानसिक विकास हो पाता है, न ही उनमें आगामी जीवन के यथार्थ से लोहा लेने का आत्मविश्वास बन पाता है। शोचनीय है कि जब देश का प्रत्येक दूसरा बच्चा ऐसे अपराधों का शिकार हो रहा है और परिस्थितियों एवं कानून के बेहद ढीले रवैये के चलते ‘डिप्रेशन’ में जा रहा है, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कैसा पंगु और मनोरोगी समाज बनने दे रहे हैं? हम सबकी गंभीर जिम्मेदारी है कि अपने समाज में और हरीश, गणेश तथा सिंड्रैला न बनने दें। अपने बच्चों को सुनें, उन्हें समझें, पर्याप्त समय दें और संभावित खतरों के प्रति सावधान करें। साथ ही, उनके दैनिक कार्य-व्यवहार का संज्ञान रखें। इस एपिसोड ने बच्चों को ‘सेक्स-एजुकेशन’ देने पर पिछले दिनों उठी बहस को पुन: एक सार्थक मोड़ दिया है कि ‘यौन शिक्षा’ हमारे बच्चों से लेकर परिवार, समाज और अंतत: देश को स्वस्थ और अपराध-मुक्त रखने के लिए कितनी ज़रूरी है। शो के अंत में आयोजित ‘वर्कशॉप’ के माध्यम से आमिर ने इस ज़रूरी शिक्षा का पहला पाठ बच्चों सहित हम सबको पढ़ा भी दिया है।

(15 मई, 2012 को ’मोहल्ला लाइव’ में प्रकाशित आलेख 
http://mohallalive.com/2012/05/15/jai-kaushal-on-satyamev-jayate-second-episode/)

1 comment:

vinay bhushan said...

व्यक्ति, परिवार तथा समाज के प्रति लापरवाह लोगों के ऊपर एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा किया है आपने. इसके लिए बहुत-बहुत बधाई ! तात्कालिक सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखा गया होता तो 'सम्मान' और 'नैतिकता' के और भी मायने खुलकर सामने आ सकते थे. वैसे इस तरह के लेखों की परंपरा 'व्यक्तित्व विकास' के ऊपर लिखी गईं पुस्तकों में भी देखने को मिलती है, लेकिन उसमें कल्पना ज्यादा और हकीकत नाम मात्र की होती है. आप उस परंपरा से आगे निकल गए हैं. तथापि भौतिकवादी और परम्परावादी समाज दोनों का मिला-जुला मूल्यांकन किया जाना अभी शेष है, आशा है, आगे इसपर विचार करेंगे.