कि हर कोई
चाहता तो है
रामायण..
पर होता है
महाभारत ही
और इसी में डूबता-उतराता
महाभारत को रामायण में
बदलने की हरचंद कोशिश करता
मनुष्य
देता है तसल्ली
खुद को अंतत:
गीता या अन्य किसी दर्शन से..
कौन अपना है
और कौन है पराया
लेकर क्या आए थे
और जाओगे लेकर क्या
जब तक जीवन है
बनी रहती है
यही
उधेड़बुन भी..
2 comments:
नमस्कार जय कौशल जी,
'तलाश' और 'विडंबना' की आपाधापी को व्यकेत करती आपकी कविताएं जीवन के दो छोरे को समेटती चलती है। क्या यह अनायास नहीं है कि एक समय जिसकी तलाश में हम अपना सबकुछ दाँव पर लगा देते है वहीं दूसरे समय में एक गहरी विडंबना के रूप में हमारे सामने आती है। शायद मुनष्य की प्रकृति ही ऐसी हो। जो हो इसके माध्यम से मनुष्य अपने होने की सार्थकता और निर्थकता को तो बयान करता ही है।
सादर।
बहुत सुन्दर रचना!
लिखते रहिए!
जिससे कि आपकी अभिव्यक्ति से लोग लाभान्वित होते रहें!
Post a Comment