Saturday, November 12, 2011

कुल-दीपक (लघुकथा)


वह उम्मीद से थी, जब से उसे इस बात का पता चला है, आपे में नहीं रहती। जब-जब हाथ पेट पर जाता है, कहीं खो-सी जाती है। अब वह बहुत सावधानी बरतने लगी थी। कब, क्या, कितना खाना, सीढ़ियाँ कम चढ़ना, जहाँ तक हो सके आराम करना आदि आदि। दिनों के साथ उसके सपने भी आकार ले रहे थे। अब उसे अकेलापन नहीं कचोटता था। रोज दिन गिना करती, जब यह पैदा होगा तो ऐसा होगा, इसके साथ यह करूंगी, वह खिलाउंगी, वैसा पहनाउंगी, दु:ख पा लूंगी पर खूब पढ़ाउँगी..उनके जाने के बाद यही तो मेरा सहारा है..मेरे बुढ़ापे की लाठी..
आखिर वह दिन भी आया, अब तो उसकी खुशियों का ओर-छोर न था, अपने सारे अरमान निकाले। उसी की नींद सोती, जागती। उसकी सारे जिदों, शरारतों को पूरा करती। वह बड़ा हो रहा था। अच्छी-बुरी सोहबतें भी असर कर रही थी। सुबह तैयार करके स्कूल भेजती, वह मुहल्ले के आवारा लड़कों के साथ कंचे अथवा ताश खेलकर लौट आता, यहाँ तक कि पिक्चर भी जाने लगा था।
उसके खेल धीरे-धीरे जुए में बदल रहे थे। चोरी-छुपे शराब पीना भी शुरू हो गया था। वह जो पैसे देती, जुए, शराब में उड़ा देता, खत्म होने पर और माँगता। यहाँ तक कि मना करने पर घर के बर्तन फेंकने लगता और बड़बड़ाता हुआ निकल जाता, किसी दोस्त के यहाँ जाकर सो जाता। वह रात-भर ढूँढ़ती फिरती।
एक दिन हारकर उसने लड़के का ब्याह कर दिया, सोचा जिम्मेदारी पड़ेगी तो राह पर आ जाएगा....शादी के कुछ दिन तो ठीक रहा, फ़िर उसी ढर्रे पर...उस दिन तो नशे में उसने माँ पर गिलास फेंक मारा था, चार टाँके आए....अब वह गुमसुम-सी रहती थी। कोई काम होता कर लेती, बाकी समय पड़ी शून्य में ताकती..
अचानक एक दिन बहू भागी-भागी कोठरी में आई और हाँफते लजाते हुए बोली- माँ..माँ, मैं..उम्‍..उम्मीद से हूँ..उसने चौंककर बहू को देखा, फिर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और एकाएक फूट-फूट कर रोने लगी। बहू भौंचक-सी सास का मुँह देखे जा रही थी....

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