यों बात बहुत पीछे से शुरू
की जा सकती है,
पर चलिए एक ताज़ा उदाहरण से कहते हैं. 2007 में एक फ़िल्म आई थी 'जब वी मेट'. उस फिल्म में रेलवे का स्टेशन-मास्टर नायिका करीना
कपूर से कहता है,
‘अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है.’ हालांकि नायिका द्वारा तब उस फ़िल्म में एक पुरुष द्वारा कहे गए स्त्री-विरोधी,
पूर्वाग्रही,
सामंती वाक्य का वैसा विरोध नज़र नहीं आया था. हम जैसे बहुत-से पढ़े-लिखे दर्शकों को भी तब वह ‘चमत्कारिक’
वाक्य सुनकर
बहुत हँसी आई थी. बख़ैर, अब 2016 में एक फ़िल्म आई है- ‘पिंक’. 7-8
साल होने
को आए,
इस बीच ‘सौम्या’,
‘निर्भया’,
‘डेल्टा’
बहुत कुछ हो गुजरा, अनेक कानून भी आए,
पर हमारे समाज की मान्यताएँ अभी भी कमोबेश वही की वही हैं. ‘अकेली लड़की को खुली तिजोरी मानने वाली’, ‘उसके इन्कार को इकरार समझने वाली’ ‘स्त्री-विरोधी’,
‘पूर्वाग्रही’
और ‘सामंती’. ‘पिंक’
एक ऐसी फ़िल्म
है,
जो इन सारी कुमान्यताओं पर दनादन हथौड़े मारती है.
यहाँ स्त्री द्वारा ‘ना’ कहने का मतलब अपने अभिधार्थ में ‘ना’ ही है, बिना रत्ती भर लक्षणा और व्यंजना की गुंजाइश के. उनका हँसना-बोलना, कपड़े, डांस-म्यूजिक पीना-पिलाना सब नॉर्मल व्यवहार के हिस्से हैं, मर्दों के लिए ‘संकेत’ नहीं, प्लीज! अमिताभ बच्चन द्वारा वकील के रूप में जज के सामने दिया गया फ़िल्म का लगभग अंतिम डायलॉग कि, ‘NO! No your honour! My client said no! नो एक शब्द नहीं है. एक वाक्य है. नो का मतलब नहीं होता है, फिर चाहें वो आपकी दोस्त हो, गर्ल फ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी बीवी ही क्यों न हो.’ हमारे आत्म-मंथन के लिए एक जरूरी वाक्य है.
एक समय था, जब फ़िल्मों में सरकारी गवाह बन चुके व्यक्ति को गवाही के दिन अदालत तक पँहुचाने में निर्देशक अपनी सारी कला और ऊर्जा खपा देते थे, तब भी अपराधी अमीर जादे, किसी नेता या रसूख वाले के रिश्तेदार हुआ करते थे, तब भी हमारी ‘मुस्तैद’ पुलिस अपराध होने के बाद ही आती थी और अक्सर अपराधी की ओर से उसे बचाने के लिए सारी कार्यवाही किया करती थी. तब नायक या नायिका गुस्से और अपमान में भर कानून अपने हाथ में लेकर अकेले दम पर अपराधियों से सुपरमैन/वुमन बनकर उनका खात्मा कर देता था और अंत में यह कहकर कि मैं इस देश के कानून का सम्मान करता/करती हूँ, उसके द्वारा अपने आपको पुलिस के हवाले कर दिया जाता था, फ़िल्म खत्म हो जाती थी, हम दर्शकगण नायक/नायिका के संघर्ष और उसकी ‘जीत’ की वाहवाही करते नहीं थकते थे. फ़िल्मों में स्त्री-मुद्दा तब भी, कम ही सही, एक विषय था, महिलाओं का उत्पीड़न, छेड़छाड़, बलात्कार तब भी थे, लेकिन उस समय की फ़िल्मों में उत्पीड़ित/शोषित महिलाओं की ओर से प्राय: उनके बेटे/भाई/मित्र/पिता अथवा पति यानी पुरुष अपराधियों से अपनी स्त्रियों पर हुए अत्याचार का बदला लेते थे.
स्त्रियों की सीधी भागीदारी अपने प्रति हुए अपराध के विरोध में वैसी सीधी नहीं दिखती थी. लेकिन आज का परिदृश्य बदल गया है. फ़िल्मों के कथानक में ‘कथा और कल्पना’ का तत्त्व इधर लगातार कम होता दिख रहा है. अब स्त्री अपनी लड़ाई खुद लड़ रही है, कानून में पूरी आस्था के साथ भरपूर तर्क के बल पर. ‘पिंक’ में इसे देखा जा सकता है. ‘पिंक’ की तीनों नायिकाएँ समाज द्वारा स्त्री को एक स्त्री के साथ सम्पूर्ण इंसान और स्वतंत्र सोच की आजाद इकाई स्वीकार करवाने तथा हिंसा की नहीं, वे बार-बार ‘ना’ कहने के बावजूद अपने साथ जबरदस्ती किए जाने पर आत्मरक्षा के रूप में की गई ‘हिंसक कार्यवाही’ को ‘आत्मरक्षा’ ही मानने की लड़ाई लड़ रही हैं. ऐसे समाज में उनका डर जाना भी अस्वाभाविक नहीं हैं. जाहिर है, इस प्रक्रिया में उनके साथ एक पुरुष अमिताभ बच्चन भी वकील के रूप में आ खड़े हुए हैं.
कुछ मित्रों को आपत्ति है कि डायरेक्टर साब को एक पुरुष ही वकील बनाना था, जो घटना से पहले स्वयं इन लड़कियों को ‘घूरा’ करता था, कोई महिला वकील उन्हें नहीं सूझी. फ़िल्म ने उस घूरने वाले पुरुष को वकील बनाकर उसे स्त्रियों का संरक्षक और तारणहार बना दिया, जो अंतत: पुरुषवाद की जीत है. कहने को तो कोई यह भी कह ही सकता है, कि इसमें वर्किंग गर्ल्स के रूप में काम कर रही और एक-साथ रह रही तीनों लड़कियों में एक दिल्ली की पंजाबी है, दूसरी लखनऊ से मुस्लिम समुदाय की है और तीसरी नॉर्थ-ईस्ट की (संभवत: आदिवासी) है, इनमें एक भी लड़की 'दलित' क्यों नहीं है!! उसे भी एक वर्किंग-गर्ल के रूप में इनकी साथी दिखाया जाना चाहिए था, तब फ़िल्म और ज्यादा रियलिस्टिक होती. फ़िर कोई और मांग भी आ जाती.
बहरहाल, यह बात तो सही है कि महिला वकील होनी चाहिए थी, तब फ़िल्म का तेवर कुछ और बेहतर बनता, लेकिन ‘घूरने’ वाली बात समझ में नहीं आई. यह सही है कि किसी को घूरना गलत है, स्त्री को घूरना तो अपराध है, अगर वह वास्तव में किसी को प्रताड़ित करने की दृष्टि से है तो! किसी ने कहा है कि, ‘गलत समझ के नहीं देखता हूँ तेरी तरफ/ ये देखता हूँ कि अंदाजे-ज़िन्दगी क्या है’, यह भी तो हो सकता है कि फ़िल्म में तीनों लड़कियों के अन्य पड़ोसियों की तरह वकील अमिताभ बच्चन उन्हें ‘घूर’ न रहे हों, न ही अन्यों की तरह उनके घर में पुरुषों के आने-जाने के ‘टाइम’ और ‘ड्यूरेशन’ का रिकॉर्ड रख रहे हों, बल्कि पारम्परिक रूप में अकेली रह रही लड़कियों के प्रति एक सामान्य, सहज, मानवीय समझने वाला नजरिया रखकर ‘देख’ रहे हों, कि जिन्हें पूरा समाज जो समझे बैठा है, वे वैसी हैं भी या नहीं! अन्यथा एक घूरने वाला आदमी उन लड़कियों के मुश्किल समय में अन्य सभी पड़ोसियों की तरह उनकी मदद नहीं भी कर सकता था, आम समाज की तरह उन्हें ‘गश्ती पार्टी’ मानकर उनके विरोध में भी बना रह सकता था, क्योंकि तब अन्यों की तरह उसकी भी ‘अकेली लड़की को खुली तिजोरी मानने वाली’, ‘उसके इन्कार को इकरार समझने वाली’ ‘स्त्री-विरोधी’, ‘पूर्वाग्रही’ और ‘सामंती’ मानसिकता को अच्छी खुराक मिल रही होती, लेकिन उन्होंने इसके विपरीत जाकर उन पड़ोस में रहकर भी अन्जान जैसी लड़कियों की मदद की.
मुझे लगता है, अमिताभ का एक पड़ोसी के रूप में उन्हें देखना, देखना ही था, ‘घूरना’ नहीं था. वैसे तो हमारे समाज की मानसिकता ही स्त्री-विरोधी है, एक-दूसरे के घरों में क्या हो रहा है, इसे लेकर हम अक्सर 'पीपिंग टॉम' बने रहते हैं. फिर अगर वे अकेली लड़कियाँ हों तो, उफ्फ्फ! फ़िल्म में दिल्ली में रह रही नार्थ-ईस्ट की लड़कियों के साथ प्रायः कैसा व्यवहार होता है, इसे भी संक्षेप में, पर बखूबी बताया गया है. सबका अभिनय बेजोड़ है, अमिताभ बच्चन सहित. मेरे विचार से हमें एक पॉपुलर, व्यवसायी एवं एंटरटेन्मेंट, एंटरटेन्मेंट और सिर्फ़ एंटरटेन्मेंट के लिए बदनाम हो चुके सिनेमा माध्यम से यथार्थ की अतिरिक्त माँग करने के बजाय हमारे बीच के मुद्दे उठाने और जनता में चेतना को विस्तार देने के कारण उसके लगातार रियलिस्टिक तथा मैच्योर होने और हमें मैच्योरिटी से सोचने तथा व्यवहार करने में थोड़ा-बहुत मददगार बनने पर प्रसन्नता जाहिर करनी चाहिए ..हाँ, कोसना उचित नहीं, आलोचना भरसक हो...तो आइए, ‘पिंक’ शब्द में निहित स्त्रियों के स्टीरियोटाइप ‘विशेषण’ की आलोचना के साथ उसका ‘संज्ञा’ के रूप में स्वागत करें और तनवीर गाज़ी के शब्दों में कहें कि, 'तू ख़ुद की खोज में निकल/तू किसलिए हताश है/तू चल तेरे वज़ूद की/समय को भी तलाश है'..
यहाँ स्त्री द्वारा ‘ना’ कहने का मतलब अपने अभिधार्थ में ‘ना’ ही है, बिना रत्ती भर लक्षणा और व्यंजना की गुंजाइश के. उनका हँसना-बोलना, कपड़े, डांस-म्यूजिक पीना-पिलाना सब नॉर्मल व्यवहार के हिस्से हैं, मर्दों के लिए ‘संकेत’ नहीं, प्लीज! अमिताभ बच्चन द्वारा वकील के रूप में जज के सामने दिया गया फ़िल्म का लगभग अंतिम डायलॉग कि, ‘NO! No your honour! My client said no! नो एक शब्द नहीं है. एक वाक्य है. नो का मतलब नहीं होता है, फिर चाहें वो आपकी दोस्त हो, गर्ल फ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी बीवी ही क्यों न हो.’ हमारे आत्म-मंथन के लिए एक जरूरी वाक्य है.
एक समय था, जब फ़िल्मों में सरकारी गवाह बन चुके व्यक्ति को गवाही के दिन अदालत तक पँहुचाने में निर्देशक अपनी सारी कला और ऊर्जा खपा देते थे, तब भी अपराधी अमीर जादे, किसी नेता या रसूख वाले के रिश्तेदार हुआ करते थे, तब भी हमारी ‘मुस्तैद’ पुलिस अपराध होने के बाद ही आती थी और अक्सर अपराधी की ओर से उसे बचाने के लिए सारी कार्यवाही किया करती थी. तब नायक या नायिका गुस्से और अपमान में भर कानून अपने हाथ में लेकर अकेले दम पर अपराधियों से सुपरमैन/वुमन बनकर उनका खात्मा कर देता था और अंत में यह कहकर कि मैं इस देश के कानून का सम्मान करता/करती हूँ, उसके द्वारा अपने आपको पुलिस के हवाले कर दिया जाता था, फ़िल्म खत्म हो जाती थी, हम दर्शकगण नायक/नायिका के संघर्ष और उसकी ‘जीत’ की वाहवाही करते नहीं थकते थे. फ़िल्मों में स्त्री-मुद्दा तब भी, कम ही सही, एक विषय था, महिलाओं का उत्पीड़न, छेड़छाड़, बलात्कार तब भी थे, लेकिन उस समय की फ़िल्मों में उत्पीड़ित/शोषित महिलाओं की ओर से प्राय: उनके बेटे/भाई/मित्र/पिता अथवा पति यानी पुरुष अपराधियों से अपनी स्त्रियों पर हुए अत्याचार का बदला लेते थे.
स्त्रियों की सीधी भागीदारी अपने प्रति हुए अपराध के विरोध में वैसी सीधी नहीं दिखती थी. लेकिन आज का परिदृश्य बदल गया है. फ़िल्मों के कथानक में ‘कथा और कल्पना’ का तत्त्व इधर लगातार कम होता दिख रहा है. अब स्त्री अपनी लड़ाई खुद लड़ रही है, कानून में पूरी आस्था के साथ भरपूर तर्क के बल पर. ‘पिंक’ में इसे देखा जा सकता है. ‘पिंक’ की तीनों नायिकाएँ समाज द्वारा स्त्री को एक स्त्री के साथ सम्पूर्ण इंसान और स्वतंत्र सोच की आजाद इकाई स्वीकार करवाने तथा हिंसा की नहीं, वे बार-बार ‘ना’ कहने के बावजूद अपने साथ जबरदस्ती किए जाने पर आत्मरक्षा के रूप में की गई ‘हिंसक कार्यवाही’ को ‘आत्मरक्षा’ ही मानने की लड़ाई लड़ रही हैं. ऐसे समाज में उनका डर जाना भी अस्वाभाविक नहीं हैं. जाहिर है, इस प्रक्रिया में उनके साथ एक पुरुष अमिताभ बच्चन भी वकील के रूप में आ खड़े हुए हैं.
कुछ मित्रों को आपत्ति है कि डायरेक्टर साब को एक पुरुष ही वकील बनाना था, जो घटना से पहले स्वयं इन लड़कियों को ‘घूरा’ करता था, कोई महिला वकील उन्हें नहीं सूझी. फ़िल्म ने उस घूरने वाले पुरुष को वकील बनाकर उसे स्त्रियों का संरक्षक और तारणहार बना दिया, जो अंतत: पुरुषवाद की जीत है. कहने को तो कोई यह भी कह ही सकता है, कि इसमें वर्किंग गर्ल्स के रूप में काम कर रही और एक-साथ रह रही तीनों लड़कियों में एक दिल्ली की पंजाबी है, दूसरी लखनऊ से मुस्लिम समुदाय की है और तीसरी नॉर्थ-ईस्ट की (संभवत: आदिवासी) है, इनमें एक भी लड़की 'दलित' क्यों नहीं है!! उसे भी एक वर्किंग-गर्ल के रूप में इनकी साथी दिखाया जाना चाहिए था, तब फ़िल्म और ज्यादा रियलिस्टिक होती. फ़िर कोई और मांग भी आ जाती.
बहरहाल, यह बात तो सही है कि महिला वकील होनी चाहिए थी, तब फ़िल्म का तेवर कुछ और बेहतर बनता, लेकिन ‘घूरने’ वाली बात समझ में नहीं आई. यह सही है कि किसी को घूरना गलत है, स्त्री को घूरना तो अपराध है, अगर वह वास्तव में किसी को प्रताड़ित करने की दृष्टि से है तो! किसी ने कहा है कि, ‘गलत समझ के नहीं देखता हूँ तेरी तरफ/ ये देखता हूँ कि अंदाजे-ज़िन्दगी क्या है’, यह भी तो हो सकता है कि फ़िल्म में तीनों लड़कियों के अन्य पड़ोसियों की तरह वकील अमिताभ बच्चन उन्हें ‘घूर’ न रहे हों, न ही अन्यों की तरह उनके घर में पुरुषों के आने-जाने के ‘टाइम’ और ‘ड्यूरेशन’ का रिकॉर्ड रख रहे हों, बल्कि पारम्परिक रूप में अकेली रह रही लड़कियों के प्रति एक सामान्य, सहज, मानवीय समझने वाला नजरिया रखकर ‘देख’ रहे हों, कि जिन्हें पूरा समाज जो समझे बैठा है, वे वैसी हैं भी या नहीं! अन्यथा एक घूरने वाला आदमी उन लड़कियों के मुश्किल समय में अन्य सभी पड़ोसियों की तरह उनकी मदद नहीं भी कर सकता था, आम समाज की तरह उन्हें ‘गश्ती पार्टी’ मानकर उनके विरोध में भी बना रह सकता था, क्योंकि तब अन्यों की तरह उसकी भी ‘अकेली लड़की को खुली तिजोरी मानने वाली’, ‘उसके इन्कार को इकरार समझने वाली’ ‘स्त्री-विरोधी’, ‘पूर्वाग्रही’ और ‘सामंती’ मानसिकता को अच्छी खुराक मिल रही होती, लेकिन उन्होंने इसके विपरीत जाकर उन पड़ोस में रहकर भी अन्जान जैसी लड़कियों की मदद की.
मुझे लगता है, अमिताभ का एक पड़ोसी के रूप में उन्हें देखना, देखना ही था, ‘घूरना’ नहीं था. वैसे तो हमारे समाज की मानसिकता ही स्त्री-विरोधी है, एक-दूसरे के घरों में क्या हो रहा है, इसे लेकर हम अक्सर 'पीपिंग टॉम' बने रहते हैं. फिर अगर वे अकेली लड़कियाँ हों तो, उफ्फ्फ! फ़िल्म में दिल्ली में रह रही नार्थ-ईस्ट की लड़कियों के साथ प्रायः कैसा व्यवहार होता है, इसे भी संक्षेप में, पर बखूबी बताया गया है. सबका अभिनय बेजोड़ है, अमिताभ बच्चन सहित. मेरे विचार से हमें एक पॉपुलर, व्यवसायी एवं एंटरटेन्मेंट, एंटरटेन्मेंट और सिर्फ़ एंटरटेन्मेंट के लिए बदनाम हो चुके सिनेमा माध्यम से यथार्थ की अतिरिक्त माँग करने के बजाय हमारे बीच के मुद्दे उठाने और जनता में चेतना को विस्तार देने के कारण उसके लगातार रियलिस्टिक तथा मैच्योर होने और हमें मैच्योरिटी से सोचने तथा व्यवहार करने में थोड़ा-बहुत मददगार बनने पर प्रसन्नता जाहिर करनी चाहिए ..हाँ, कोसना उचित नहीं, आलोचना भरसक हो...तो आइए, ‘पिंक’ शब्द में निहित स्त्रियों के स्टीरियोटाइप ‘विशेषण’ की आलोचना के साथ उसका ‘संज्ञा’ के रूप में स्वागत करें और तनवीर गाज़ी के शब्दों में कहें कि, 'तू ख़ुद की खोज में निकल/तू किसलिए हताश है/तू चल तेरे वज़ूद की/समय को भी तलाश है'..
https://samalochan.blogspot.in/2016/09/blog-post_25.html में प्रकाशित..
2 comments:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
महात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
महात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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