समकालीन कविता में भरत प्रसाद तेजी से उभरता नाम है। उनकी कविता में प्रकृति से लेकर राजनीति तक और लोक से लेकर वैश्विक संदर्भों तक कुछ छूटता नहीं है। सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास सब पर उनकी कलम नए-नए अर्थों की संभावनाएँ तलाश करती चलती है| 'एक पेड़ की आत्मकथा' उनका पहला कविता-संग्रह है जिसमें 49 कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता 'प्रकृति की ओर' से ही कवि की संवेदना स्पष्ट होने लगती है। असल में, 'प्रकृति की ओर' शीर्षक से संकलन में दो कविताएँ हैं, पर उनमें केवल नाम का ही साम्य है, कथ्य दोनों का अलग है। 'प्रकृति की ओर' शीर्षक पहली रचना सरसरी तौर पर माँ और प्रकृति रूपी माँ दोनों की स्वाभाविकता का साधारण शब्दों में धन्यवाद ज्ञापन लगती है पर अपनी अर्थवत्ता में यह असाधारण बन पड़ी है- 'सुना है/ ममता के स्वभाववश/ माता की छाती से/ झर-झर दूध छलकता है/ मैं तो अल्हड़ बचपन से / झुकी हुइ साँवली घटाओं में/ धारासार दूध बरसता हुआ/ देखता चला आ रहा हूँ/ आत्मविभोर कर देने वाला यह विस्मय/ मुझे प्रकृति के प्रति अथाह कृतज्ञता से/ भर देता है।' (प्रकॄति की ओर, पृष्ठ:13) इसी शीर्षक की दूसरी कविता ग्रामीण संवेदना की मार्मिक रचना है, जो अनायास बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता 'बहुत दिनों के बाद' की याद दिला देती है। भरत के यहाँ असल में बाबा के कविता रूपी सिक्के का दूसरा पहलू सामने आया है। बाबा बहुत दिनों के बाद प्रकॄति और लोक के नज़दीक जाकर रंग-रूप, रस, गंध, स्वाद व ध्वनि से अपनी सारी इंद्रियों को तॄप्त हुआ पाते हैं जबकि भरत के यहाँ इन सबकी अतृप्ति की पीड़ा है- 'प्रात: bबेला/ टटके सूरज को जी भर देखे/ कितने दिन बीत गए/ नहीं पी पाया/ दुपहरी की बेला/ आम के बगीचे में झुर- झुर बहती/ शीतल बयार।' (प्रकॄति की ओर, पृष्ठ-67) इसी प्रकार 'वह चेहरा' नाम से संकलन में चार कविताएँ हैं। चारों रचनाओं के चारों चेहरे अपने में शोषण, पीड़ा, बलात्कार और कुपोषण का दर्द समेटे हैं। कवि की दृष्टि रीतिकालीन रचनाकारों की तरह उजले, खाए- पिए, अघाए और काम जगाते चेहरों की ओर नहीं जाती। वह जाती है तो दबे- कुचलों की ओर, हाशिए पर स्थित लोगों की ओर, यहाँ तक कि जीव- जन्तुओं की ओर। चाहे वह गाय के कटे सिर वाला चेहरा हो या फ़ुटपाथ पर रह रहे अनाथ, कुपोषित बच्चे का चेहरा हो अथवा बलात्कृत स्त्री।
हमारे साहित्यकारों ने अपनी कलम सबसे ज्यादा जीवन पर चलाई है, मृत्यु या मृत्यु-बोध पर बहुत कम लिखा गया है। मृत्यु के खिलाफ़ तो बिल्कुल नहीं लिखा गया। तुलसी, जायसी आदि से लेकर आज तक हमने सर्जना के बल पर अमर होने की कामना की है, परन्तु भरत प्रसाद की ' मौत के खिलाफ़ बयान' ऐसी रचना है जो मृत्यु को जीतने की आकांक्षा तो व्यक्त करती है पर उसमें कोई स्वार्थ नहीं है। कवि मृत्यु को इसलिए जीतना चाहता है ताकि आदमी के लिए आदमी को जी सके, जड़- चेतना को आत्मवत महसूस कर सके। मृत्यु के खिलाफ़ यह अपने ढंग की अकेली रचना है।
भरत के निशाने पर आज का तथाकथित शहरी, सभ्य और औपचारिकता में जीने वाला 'धनाढ़्य' व अफ़सर- वर्ग है, जो आम गरीब, मजदूर तथा किसान की कीमत पर ऐश कर रहा है। 'तुम इंसान नहीं हो', 'वह पुराना आदमी', 'फिर भी चुप हैं'और 'गरम चाय' जैसी कविताएँ इसके बेहतरीन उदाहरण हैं- 'बड़ी सुबह/ सर जी के हरे- हरे/ बिस्तर से लान में/ नौकर सी टेबुल की/ पतली और छोटी सी/ सहनशील पीठ पर/ अस्त-व्यस्त पड़ी हुई/ ' टाइम्स- आफ़-इंडिया'/ मुख्य पृष्ठ../ राजनीतिक प्रवचन से/ इंच-इंच भरा हुआ है/ फैला है उग्रवाद/ पूर्वोत्तर राज्यों में/ पेपर के पीछे/ छोटे- छोटे लोगों के/ मुट्ठीभर जीवन में/ लाइलाज दर्द वाले/ शब्दों के भावों में मिलती है दास्तान/ सर और मैडम की/ खुली हुई बंद आँखें/ परिचित घटनाओं से/ बुरी तरह ऊबकर/ एक साथ मिलते ही/ तिरछा मुस्काती हैं/ मानों वे कहती हों/ पिछ्ड़े हुए देशों में/ ऐसा ही होता है।' (गरम चाय, पृष्ठ: 33-34)
वस्तुत: भरत प्रसाद की काव्य- संवेदना का आयतन बहुत विस्तृत है। संग्रह का शीर्षक 'एक पेड़ की आत्मकथा' ऐसे ही नहीं है। इनकी कविताएँ हवा में हस्ताक्षर भी नहीं हैं। कवि को अपनी समृद्ध परम्परा और पूर्वज अच्छे से याद हैं। बुद्ध, रवीन्द्रनाथ, कबीर, नागार्जुन और कामरेड चन्द्रशेखर पर संकलित इनकी रचनाएँ इसे प्रमाणित करती हैं। भरत न केवल उनके दाय को याद करते हैं बल्कि उनका नए सिरे से मूल्यांकन करने का भी प्रयास करते हैं। 'तुम रहोगे चन्द्रशेखर' शीर्षक कविता कामरेड चन्द्रशेखर नामक व्यक्तित्व के लिए श्रद्धांजलि मात्र नहीं है, यह एक क्रांतिधर्मी सामूहिक विचार है। यह कविता आज की भाषा में अन्याय और शोषण के खिलाफ़ लड़ने वाले हर व्यक्ति का प्रेरणास्रोत बन गई है। इसीलिए संग्रह का समर्पण भी कामरेड चंद्रशेखर ही हैं।
'आजकल कबीर' कबीर की कविता के हश्र पर दुख व्यक्त करने के साथ- साथ आज के लेखकों द्वारा केवल पुरस्कार की आकांक्षा से साहित्य- लेखन की प्रवॄत्ति पर तीखा व्यंग्य करती है। इसी प्रकार 'रवीन्द्रनाथ के आँसू' बताती है कि दुख और व्याकुलता अच्छे- अच्छों को रुला डालते हैं क्योंकि- 'सारी उपलब्धियों के बावजूद/ आँसुओं से बढ़कर/ आदमीयत की कोई भाषा नहीं।' इन कविताओं में एक खास किस्म की लय मौजूद है, जिससे वे कहीं मुहावरे की शक्ल लेती बन पड़ी हैं तो कहीं नारे में बदलती महसूस होती हैं।
संग्रह की सारी कविताएँ एक धारदार व्यंग्य हैं, जिनकी चोट एकदम निशाने पर हुई है- 'ढाँचों का जीवन है/ गाँवों के भारत में/ ईश्वर है धनी- वर्ग/ भूखी जनसंख्या का/ औरत को मुक्ति है/ आँचल की सीमा में/ खेतिहर की सर्विस में/ पैसे का पता नहीं/ पढ़े- लिखे भइया का/ वाह- वाह क्या कहना।' (बाबा नागार्जुन से, पॄष्ठ:31) 'वह पुराना आदमी' संकलन की सबसे अच्छी रचनाओं में एक है। यह न केवल तथाकथित सभ्य समाज के व्यक्ति, जो किसी के दुख में भी रेडीमेड ढंग से शामिल होते हैं, पर व्यंग्य है, बल्कि स्वयं की आलोचना से भी नहीं हिचकती। एक तरफ़ ऐसे लोग हैं जो मात्र जीने की चाहत में सबकी खुशामद करते फिरते हैं और कवि के शब्दों में रोटी की कीमत पर मरने की सर्विस करते हैं तो दूसरी तरफ़ ऐसे लोग भी हैं जो स्वयं श्रेष्ठता रूपी नीचता के अंधे पुजारी हैं, वे जाति रूपी जालों में दूसरों के प्रति जड़ ही बने रहते हैं। इसी प्रकार ' मरा हुआ मैं' हमारे सच के पक्ष में न बोलने, शोषणकारी ताकतों के खिलाफ़ आवाज न उठाने की कायरता और अकर्मण्यता को दर्शाने वाली कविता है- 'असल में हम मर चुके हैं/ न तो आँखों से देखते हैं/ न दिमाग से सोचते हैं/ न ही दिल से महसूस करते हैं/ शायद हम/ भाग्य के भरोसे, निरुद्देश्य/ धरती पर जीते हुए/ हाड़- मांस के पुतले हैं।' (मरा हुआ मैं, पृष्ठ:75) ये कविताएँ आज के मनुष्य को आत्मालोचन के लिए उकसाती हैं और अपनी मनुष्यता बचाए रखने का आग्रह करती हैं- 'अपनी सोचो, कहाँ खडे हो/ नई शती या मध्यकाल में/ विश्व बढ़ रहा आगे- आगे/ तुम हो वैसे पीछे जाते/ मजहब की बंजर धरती पर/ कट्टरता के अंधकार में/ जानबूझकर ठोकर खाते।' (बामियान के बुद्ध, पृष्ठ: 43)
भरत प्रसाद की कविताएँ सवाल बहुत करती हैं- सरल भाषा में जटिल सवाल,जिनका सीधे- सीधे कोई जवाब नहीं दिया जा सकता। यहाँ तक कहा जा सकता है कि उनकी लगभग हर कविता सवालों का पुंज है, जो पाठक को झकझोर डालते हैं- 'रुपया लूटा नहीँ बात पर/ घर भरी लूटा नहीं बात पर/ बहू- बेटियों की शरीर क्यों?/ बहुत बार बर्बाद हुई है/ फिर भी हम सब न जाने क्यों? चुप हैं- बिल्कुल चुप हैं!'(धूमिल की भाषा में यह समझदार चुप्पी है।) कवि द्वारा विरोधाभासी शब्दों का एक साथ प्रयोग उनके व्यंग्य को और गहरा कर देता है, जो वस्तुत: भरत प्रसाद की शैली की विशेषता है- 'बारह साल उम्र का/ दिखता बुजुर्ग-सा/ पैसे की कीली पर/ घूम रही पृथ्वी के/ पूरे विस्तार में/ घूम रहा बार- बार/ मानव का यह भविष्य/ चुपचाप देख रहा/ नौजवान दुनिया को/ बूढ़ी- सी मासूम/ दो अबोध आँखों से/ जैसे हो पूछ रहा- सीधा-सा जटिल प्रश्न/ क्या मैं भी जिन्दा हूँ?' (बुजुर्ग लड़का, पृष्ठ:37)
संकलन की कुछ कविताएँ एक सार्थक उम्र पाने की ताकत रखती हैं, जैसे- 'फूलनदेवी: एक सवाल', 'भँवरी जिन्दा है' और गुजरात की रात। जब- जब कहीं स्त्रियों पर अत्याचार होगा, मानवता का कत्ल होगा, साम्प्रदायिक दंगे भड़केंगे- ये कविताएँ प्रासंगिक हो उठेंगी। जिस तरह फूलनदेवी हमारी क्रूर समाज-व्यवस्था और राजनीति पर सवालिया निशान है, उसी प्रकार भँवरीबाई देश की कानून- व्यवस्था पर बेधक प्रश्न है। पर ये कविताएँ केवल महिलाओं पर हुए ऐतिहासिक अत्याचार की याद दिलाने तक ही सीमित नहीं रह जातीं। ये आक्रोश जगाती है- पुरुष सत्तात्मकता की शाश्वत पशुता के खिलाफ़, स्त्री की स्वतंत्रता पर कुंडली मारकर बैठे प्रभु-वर्ग के खिलाफ़। जहाँ एक तरफ़ देश में 'महिला-सशक्तिकरण वर्ष' मनाए जा रहे हों, संसद से लेकर हर क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की बातें की जा रही हों, वहाँ भँवरी, फूलन और रूपकँवर जैसे काँड हमारी पोल खोल कर रख देते हैं। हम खूब साम्प्रदायिक सौहार्द्र की बात करते हैं, शांति और खुशहाली का प्रयास करते हैं, पर चंद सियासी ताकतें धर्म, जाति, लिंग आदि अस्मिताओं का दुरुपयोग अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में कर ही लेते हैं और मानवता के माथे पर एक नया घाव बन जाता है। 'गुजरात की रात' कविता इस संदर्भ में ज्वलंत उदाहरण है- 'लो दबी आग, फिर उठी आज/ बुझते का हृदय जलाने को/ बन चक्रवात विकराल/ निगलती जनप्रदेश/ सब दुखी देश, करती उजाड़/ श्मशान बनाती ओर-छोर/ माताएँ जलतीं गर्भ लिए/ बच्चे अबोध जलते, बुझते/ करते विलाप असहाय/ बिलखते बार-बार बेजान/ कर मृत्यु-पूर्व का आर्त्तनाद/ ये बच्चे बूढ़ों-सा रोते!' (गुजरात की रात,पृष्ठ:58)
यद्यपि एक- दो कमजोर रचनाओं को छोड़ दें तो एक के बाद एक व्यंग्य भरे प्रश्नों से सराबोर इस संकलन की अधिकतर कविताएँ जहाँ मन में हलचल जगाती हैं, वहीं 'तुम्हारी हँसी', 'फागुन', 'मुझे चाह' और 'आज क्या नाम दें' जैसी रचनाएँ मन पर ठण्डे फाहे का काम करती हैं। गौरतलब है कि भरत प्रसाद का कवि अपने सौंदर्य- चित्रण में भी लोक नहीं भूलता- 'घनघोर बरसात के पश्चात/ पूरब के शीतल आकाश में/ घनी धूप का आकर्षण है/ वह है- किसी सुदूर अंचल के उत्सव में/ लोकधुन पर बजते/ नर्तकियों के पाजेब की झंकार।' (तुम्हारी हंसी, पृष्ठ:99) अथवा- कुछ दिन पहले/ उदासीन-सी धरती/ नई दूब की तरह फीकी थी/ आज फागुन का अहसास पाकर/ सजी हुई विरहन लग रही है।
(फागुन,पृष्ठ:103)
एक बार प्रेमचंद से किसी ने पूछा था- आपकी सबसे अच्छी कहानी कौनसी है? उन्होंने जवाब दिया कि वह अभी लिखी जानी है। भरत प्रसाद के इस संकलन की इतनी अच्छी कविताओं के बावज़ूद भगवत रावत के शब्दों में कहना चाहिए कि उनकी भी सबसे सुन्दर कविता अभी लिखी जानी है।
3 comments:
भरत प्रसाद जी से परिचय के लिये धन्यवाद ।
गुलमोहर का फूल
जय कौशलजी, सदी और सहज प्रस्तुति के लिए बधाई. आपने अपने ब्लाग की शुरुआत भरत प्रसाद जी की कविताओं की लोक गंध से की, यह सुखद है. वैसे भी आजकल की कविताओं में लोक बड़ी ही मुश्किल से दिखाई देता भी तो अपनी-अपनी शर्तों पर. यह सही है इस बीच हमारा लोक भी बदला है, लेकिन जितना वह बदला है, उससे भी कही ज्यादा बदलाव रेखांकित किया जाता है तो आश्चर्य होता है. भारत प्रसाद जी की ये कविताएँ गद्यात्मकता में ही सही, उसके साथ कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करती चलती है, उस पर अपनी टिपण्णी करती चलती है. यह अपने आपमें बड़ी बात है. लेकिन हमें उनकी बड़ी रचनात्मकता का इंतजार रहेगा. और उस पर आपकी टिपण्णी का भी. शुक्रिया. पुखराज
its good
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