Tuesday, August 9, 2011

पांडुलिपि की आत्मव्यथा


मैं पांडुलिपि हूँ..
भोज, ताड़ और चर्मपत्रों पर उकरा
लिखित ज्ञान का पहला रूप
पहचाना मुझे!
मैं वही हूँ, कई घरों के पुराने कबाड़खाने में
अभी भी पड़ी सिसक रही हूँ..
नोचा करते हैं अक्सर मुझे, चूहे
खेलते हैं नासमझ बच्चे, फाड़ते हैं मेरे पन्ने
मैं पांडुलिपि हूँ..

बच्चे तो नासमझ हैं ख़ैर
क्या जानें वो मेरा मूल्य
पर जो हैं समझदार
उनमें भी कइयों ने
घोंट दिया है मेरा गला
रख छोड़ा है
पोटली में बाँधकर
और मैं चीख-चीखकर कहती हूँ
इसके पहले कि लोग मुझे सिलसिले से काटकर अलगा दें
मुझे मेरा अर्थ चाहिए
और चाहिए सही सुरक्षा
मेरा कल्याण मेरे सही-सही पढ़े जाने में है..
मैं पांडुलिपि हूँ..

बहुत प्रसन्न थी मैं..
नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों और काशी, कांची, मथुरा कश्मीर के पुस्तकालयों अभिलेखागारों में
खाते रहे हैं सब देशी-विदेशी लुटेरे मुझसे भय
वे जानते हैं कि मैं मुसीबत हूँ उनके लिए
मैं हूँ उपाय, दुनिया के सारे डरों का
इसीलिए पहला हमला मुझी पर हुआ
हर बार
हर बार मैं ही टूटी, जली, नष्ट की गई..
ज्ञान, संस्कृति और सभ्यता का अक्षय स्रोत समेटे
मैं पांडुलिपि हूँ..

की थी मुझे बचाने की पहली फ़िक्र
बौद्धों और जैन-मुनियों ने
हुआ जब देश पर तुर्कों का हमला
नेपाल और भारत के अन्य हिस्सों में ले जाकर
रखा गया मुझे संग्रहालयों, अभिलेखागारों और पुस्तकालयों में
पर मेरी आश्वस्ति तभी बढ़ेगी
जब मुझे संरक्षित करना और पढ़ना
समझेगा देश का हर नागरिक
अपना कर्तव्य
और रखेगा मुझे खोज-खोजकर 
मानो या मानो, हूँ मैं विश्व की धरोहर
देखा है मैंने अपनी इन्हीं आँखों से
दुनिया के उत्थान और पतन को
निर्माण और ध्वंस को
मैं बढ़ूँगी, तो बढ़ेगी दुनिया
बढ़ेगा ज्ञान, विज्ञान और खुशहाली
मैं हूँ पांडुलिपि
(राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन, दिल्ली एवं त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम में 08/08/2011 को प्रस्तुत की गई..)

2 comments:

shikha varshney said...

बहुत बढ़िया.

dr.pradeep kumar said...

अच्छा है जय जी लिखो खूब लिखो .प्रदीप प्रसन्न .