सोशल मीडिया आज एक ऐसा ज्वलंत विषय बन गया है जिस पर सार्थक बहस होनी ही चाहिए। कोई भी माध्यम अपने आप में गलत नहीं होता, खासकर जो
आम जनमानस को जोड़ने का काम करे और लोगों तक सूचना का प्रसारण करे। लेकिन जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही संचार-माध्यमों के भी हैं। सोशल
मीडिया के भी कुछ लाभ और हानि हैं। आज के व्यस्त जीवन में एक ओर बुद्धिजीवी वर्ग के लिए सोशल मीडिया संचार और सूचना का सबसे बड़ा साधन बनने की तरफ अग्रसर है तो दूसरी ओर इसके दुरुपयोग भी हो रहे हैं। जिनके कारण कुछ
लोग सोशल मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग भी कर रहे हैं। अगर हम पिछले कुछ वर्षों
की घटनाओं पर पर ध्यान दें तो पाएँगे कि सोशल मीडिया विश्वभर में क्रांति का अग्रदूत रहा है। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। फिर
चाहे वो अन्ना का अनशन हो, बाबा रामदेव का आंदोलन और उसका दमन सभी को सोशल मीडिया ने बौद्धिक वर्ग तक पहुँचाया। भारतीय इतिहास और राजनीति के मुद्दों पर आज
सोशल मीडिया जितना मुखर है उतना सूचना का कोई और माध्यम नहीं है और इसका प्रमाण ये है कि आज किसी भी सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तनकामी हस्ती का जन्मदिन
और पुण्यतिथ एक साधारण दिन नहीं रह गए हैं लोग उस दिन अपने नायकों को विशेष रूप से स्मरण करते हैं और उनसे जुड़ी अनेक जानकारियाँ साझा करते हैं। कहते हैं जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं लेता वह विनाश कि तरफ अग्रसर होता है, ऐसे में सोशल मीडिया हमको अपने इतिहास की जानकारी देकर बहुत कुछ सिखा भी रहा है। इन दिनों सोशल मीडिया न्याय पाने और विषयों पर जनसमर्थन प्राप्त करने का एक सुलभ साधन बनकर उभरा है। अब तो समाननीय सर्वोच्च न्यायलय भी कई मामलों में सोशल मीडिया पर उठ रहे मुद्दों पर संज्ञान
लेने लगा है। भ्रष्टाचार और सरकार की ‘गलत’ और ‘सही’ योजनाओं का प्रचार और उनका विरोध भी जिस
गति से सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहा है और जनमानस को जागरूक कर रहा है, वो सराहनीय है। आज दुनिया-भर में कहीं भी बैठे लोग अपने मित्रों और
परिवारवालों के साथ इस माध्यम से जुड़े हुए हैं। वर्षों से बिछुड़े हुए लोग भी आजकल
यहीं ढूँढ़े जा रहे हैं। साहित्य, समाज और राजनीति की हलचलों का पता भी यहीं से लग
रहा है। सोशल-मीडिया ने साहित्य को भी खूब बढ़ावा दिया है। डॉ. कृष्ण कुमार यादव के
अनुसार, ‘फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स ने साहित्य को भी काफी समृध्द किया है। यहाँ नवोदित से लेकर स्थापित रचनाकारों का साहित्य देखा-पढ़ा जा रहा है। पत्र-पत्रिकाओं की पहुँच भले ही हजारों मात्र तक हो, पर यहाँ तो लाखों पाठक हैं। इनमें से कई पाठकों ने तो तमाम पत्र-पत्रिकाओं का नाम भी नहीं सुना होगा, पर सोशल साइट्स के माध्यम से वे भी इनसे रूबरू हो रहे हैं। अकादमिक बहसों का विस्तार अब फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स पर भी होने लगा है। नारी विमर्श, बाल विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, विकलांग विमर्श, सब कुछ तो यहाँ है। आप इन्हें शेयर कर सकते हैं, लाइक कर सकते हैं, कमेन्ट कर सकते हैं, वाद-प्रतिवाद कर सकते हैं और आवश्यकतानुसार नई बहसों को भी जन्म दे सकते हैं। विचारों की दुनिया में क्रांति लाने वाला सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसकी न तो कोई सीमायें हैं, न कोई बंधन।’ बखैर,
ये तो सोशल-मीडिया के बहुत-सारे शुभंकर पक्ष हुए, परन्तु जब से इस माध्यम ने हिंदी साहित्यकार,
आलोचकों और आम-पाठकों के बीच अपनी पैठ बनाई है,
तब से कुछ हिंदी चिंतकों को यह अंदेशा भी होने लगा है कि
इससे साहित्य का पाठन और उसकी आलोचना सिकुड़ने लगी है क्योंकि सोशल-मीडिया पर कुछ भी कच्चा-पक्का लिखकर और उसके लाइक्स गिनकर हर कोई अपने को विशिष्ट
साहित्यकार, आलोचक और विचारक समझने का भ्रम पाल बैठा है। रचनाओं का
वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो रहा है। इससे लोगों में आत्ममुग्धता और आत्मप्रचार को
खुला बढ़ावा मिला है। यानी इस माध्यम ने साहित्य,
चिंतक के आलोचनात्मक माहौल को सबसे अधिक विकृत किया है। जिसके परिणामस्वरूप अच्छे-बुरे का फर्क गायब हो रहा है। सोशल-मीडिया पर तुरंता-साहित्य और आलोचना की बढ़त के कारण पाठक अच्छी रचना और कमजोर रचना में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। इसी क्रम
में कुछ लोगों का यह तर्क भी है कि पहले विद्वान वर्षों के अध्ययन और लेखन के जरिए आलोचना की सुचिंतित किताब लिखा करते थे,
सोशल-मीडिया ने उस धीरज को भीसमाप्त कर दिया है। जाहिर है,
अच्छी आलोचना का उत्पादन हो तो कैसे हो। बहरहाल, इस आलेख में सोशल-मीडिया और हिंदी साहित्यालोचना के संबंधों एवं प्रभावों की
पड़ताल की गई है।
सच ये है कि आज हम सूचना
समाज में जी/रह रहे हैं। टीवी की बढ़त होने तक भी यह स्थिति वैसी नहीं
थी, जितना विस्फोटक सोशल साइटों ने आकर इसे बना दिया है।
लेकिन सच यह भी है कि हिंदी में लिखने-पढ़ने और आलोचना करने वाले अभी भीइन माध्यमों
से उतने नहीं जुड़े हैं,
जितने अंग्रेजी वाले! सोशल-साइट मूलत: अंग्रेजी माध्यम है।
हिंदी वाले इससे काफ़ी बाद में जुड़े। तो सबसे पहले तुलनात्मक रूप से यह
देखा जाना चाहिए कि हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में लिखने वालों में किस
अकादमिक जगत के लोग इससे ज्यादा जुड़े हैं। इस तथ्य के बाद यह पड़ताल की
जानी चाहिए कि सोशल साइटों से जुड़ने के बाद दोनों भाषाओं की आलोचना में क्या
और कितना बदलाव आया है?
सवाल यह है कि हम किसी माध्यम का प्रयोग कितना और
किस रूप में करते हैं!
हालांकि सोशल-मीडिया ने एक
हद तक आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता को बढ़ावा भी दिया है। कुछ साहित्यकारों की पोस्टें
देखकर यह आसानी से कहा जा सकता है। जी हाँ,
हिंदी में इन दिनों सक्रिय रूप से लिख रहे एक स्वनामधन्य साहित्यकार
ऐसे हैं कि वे जितना लिखते हैं, उससे बहुत ज्यादा उसके प्रचार में रुचि लेते दिखते
हैं। इसी वर्ष की शुरुआत में उनका एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। जिसका उन्होंने विश्व
पुस्तक मेले, दिल्ली से लेकर देश में कई जगह लोकार्पण कराया है
और हरेक आयोजन की कई-कई तस्वीरें सोशल-मीडिया
पर लगाई हैं। चलिए इतना स्वीकारा जा सकता है पर वह लेखक महोदय अपनी रचनाओं का आत्ममुग्धता
की हद तक सोशल-मीडिया पर प्रचार करते हैं। वे केरल से लेकर
रायपुर तक देश में कहीं जाएँ, अपने नवीनतम उपन्यास के साथ
खुद की फ़ोटो खिंचवाकर पोस्ट करना नहीं भूलते। हद दर्जे का आत्मप्रचार और
आत्ममुग्धता इसे कहते हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि जितने लोग सोशल-मीडिया
पर सक्रिय हैं, सब के सब अपने कंस्ट्रक्टिव काम छोड़कर ‘कुछ भी कर सोशल-साइट पे डाल’ वाली प्रवृत्ति के हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर रहे चौथीराम यादव भी देशभर में
जाकर भाषण देते हैं और अपनी गतिविधियों को लगातार फ़ेसबुक पर पोस्ट भी करते रहते
हैं, लेकिन इस बीच उनका गंभीर और धारदार पुस्तकीय लेखन भी सामने आया है।
हालांकि उन्होंने खुद फ़ेसबुक पर लिखकर अपनी वाचिक और लिखित परम्परा के गैप को
स्वीकार किया है। जे.एन.यू में हिंदी के प्रोफ़ेसर रहे पुरुषोत्तम अग्रवाल का नाम
भी हिंदी साहित्य और आलोचना से गहरे तौर पर जुड़ा है और ये भी आजकल लगातार
सोशल-मीडिया पर खूब लिखते हैं लेकिन उनका लेखन भी मुझे आत्मप्रचार या आत्ममुग्धता
से लबरेज नहीं लगता। अपने छात्र-जीवन से ही हम जैसे अधिकतर लोग उनकी पोस्टों से
लगातार वैचारिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। कलकत्त विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में
कार्यरत प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी भी सोशल-साइटों पर खूब लिखते हैं, लेकिन उल्लेख
कर दूँ कि ‘नया जमाना’ शीर्षक उनका
ब्लॉग इस समय दुनिया के चालीस देशों में पढ़ा जा रहा है। वे काफ़ी अधिक लिखते हैं,
इसके बावजूद उनका लेखन समाज, संस्कृति,
राजनीति और साहित्यालोचना पर केंद्रित होता है, जो आत्मप्रचार या आत्ममुग्धता के घेरे में कतई नहीं आता। यों भी, हिंदी
साहित्य से जुड़ा आदमी हिंदी साहित्य में ही चहलकदमी करे, ये
जरूरी तो नहीं। मेरे विचार से सोशल-मीडिया ने हिंदी साहित्य के भूगोल को विस्तार
दिया है, अन्यथा क्या इससे पहले आम जीवन अथवा साहित्य की दुनिया में आत्मश्लाघी
लोग नहीं थे? हिंदी में पहले भी आत्मप्रचार की प्रवृत्ति कम
नहीं थी। इतनी उजागर नहीं थी, ये जरूर कहा जा सकता है। जी
हाँ, सोशल साइटों के आने से आत्मप्रचार की चल रही प्रवृत्ति,
जो पहले थोड़े दबे-ढँके ढंग से जारी थी, उजागर
हो गई है, ये कहना ज्यादा उचित होगा। अन्यथा दशकों से हिंदी
पत्र-पत्रिकाओं में लिखी जा रही समीक्षा क्या एक तरह का आकर्षक बाजारू विज्ञापन
बनकर नहीं रह गई है, अगर वह कमजोर रचना होने के बावजूद किसी
नामचीन और आगामी चयन-समिति में जाने वाले किसी प्रोफ़ेसर की पुस्तक की है तो!!
दिल्ली विश्वविद्यालय में
हिंदी के प्रोफ़ेसर गोपेश्वर सिंह ने कुछ दिन पहले इस संबंध में ’आभासी दुनिया के
राग-रंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जिसमें उनका कहना था कि “रामचंद्र
शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास
शर्मा और नामवर सिंह ने अपनी आलोचना के जरिए जहां परंपरा के मूल्यांकन का ऐतिहासिक
दायित्व निभाया, वहीं अपने समय की रचनाशीलता की शक्ति और
सीमा का रेखांकन भी किया, लेकिन लिखी जा रही रचनाओं में से
अच्छे-बुरे का फर्क करने वाला कोई सहृदय आलोचक आज शायद ही मिले।” पर आज सहृदय आलोचक नहीं मिल रहे, ऐसी बात नहीं है। अगर
प्रो. सिंह के अनुसार ये मान भी लें कि अब पहले जैसे रचनाओं की कटाई-छँटाई करने
वाले सहृदय आलोचक नहीं मिल रहे और सोशल-मीडिया पर सिर्फ़ ‘अहो
रूपम, अहा ध्वनि’ सुनाई पड़ रही है तो
इसकी निम्न वजहें हो सकती हैं, यथा-
1. शायद पहले वाले
सहृदय आलोचक हिंदी आलोचना को सही तथा गंभीर दिशा देना अपना कर्तव्य समझते थे और इसके
लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते थे।
2. शायद पहले वाले सहृदय
आलोचक या तो आलोचना के क्षेत्र में उतरने के बाद ‘कैरियर’ और
‘संबंधों’ का गणित गड़बड़ाने की परवाह नहीं करते
थे या फ़िर वे इन दोनों में उस मुकाम तक पहुँचने के बाद आलोचना करते थे ताकि गणित
गड़बड़ाने पर भी उनके आपसी संबंधों और कैरियर पर कोई व्यक्तिगत आँच न आ सके।
पर
आज की स्थितियाँ संभवत: वैसी नहीं दिखाई पड़ती। आज बहुतेरे कैरियर/नौकरी/प्रोमोशन
पाने/बदलने की कोशिश में जी-जान से लगे युवा,
जो चयन-समिति में जाने वाले कई नामचीन प्रोफ़ेसरों से सोशल-मीडिया पर
जुड़े हैं, वे उनके कैसे भी लिखे पर न चाहते हुए भी ‘सुंदर/प्रभावी/सहमत/भरपूरसहमत/लाइक/सुपर-लाइक से अधिक कुछ नहीं लिखते
क्योंकि उन्हें डर है, कहीं ‘प्रो.
साहब’ अगली चयन समिति के सदस्य हों और सोशल मीडिया की निजी
खुन्नस के चलते इंटरव्यू ही बिगाड़ दें अथवा बढ़िया प्रदर्शन के बावजूद उसी
सोशल-साइट पर की गई आलोचना के चलते चयन न होने दें। चापलूसी/आत्मप्रचार अथवा आत्ममुग्धता
को इस रूप में बढ़ावा न मिले और गंभीरतापूर्वक लिख-पढ़ रहे युवा-आलोचकों को ऐसे डर न
हों, तो बहुत संभव है कि सोशल-मीडिया सहित पत्र-पत्रिकाओं में भी गंभीर
रचनात्मक/आलोचनात्मक लेखन हमारे सामने आए। सोशल-मीडिया ने किसी को देर तक और दूर
तक सुचिंतित ढंग से अध्ययन और लेखन के जरिए किताब लिखने के लिए रोका नहीं है। जी
हाँ, अच्छी-बुरी रचनाएँ/आलोचनाएँ आती रही हैं, आती रहेंगी। बस सोशल-मीडिया ने उनकी विजिबिलिटी बढ़ा दी है।
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