Monday, August 22, 2016

धर्मवीर भारती के दिलकश उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ को याद करते हुए...

एक पीढ़ी पहले तक ‘गुनाहों का देवता’ किसे याद नहीं होगा! जो भी रचना पाठक को उसकी मनचाही फ़ैंटेसी की दुनिया में ले जाती है, लोग उसके दीवाने हो जाते हैं। आज के यवाओं के लिए यह रचना ‘हाफ़ गर्लफ़्रेंड’ जैसी कोई किताब हो सकती है, लेकिन एक समय जवान होते लोगों के लिए धर्मवीर भारती का ‘प्रेम’ पर आधारित उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सबसे पहली पसंद था। पाठक इसके पात्रों सुधा और चन्दर से इतना ज्यादा जुड़ जाते थे कि उन चरित्रों के साथ हँसते-मुस्कुराते, आँसुओं में डूबते-उतराते हुए इसे पढ़ा करते थे। शायद वह समाज में आदर्शवाद की जबरदस्त लहर का दौर था। कहना चाहिए, अपने किस्म का प्लेटोनिक दौर! उस समय की रचनाशीलता में एक तरफ जहाँ मोहभंग का चित्रण दिखाई देता है तो दूसरी ओर अपने तरीके से आत्मबलिदान की भावना भी। हर किसी के जीवन में उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी आता है जहाँ हमें ‘प्रेम’ शब्द बहुत आकर्षित करता है। आज की अति-उत्साही और आधुनिकतावादी बेसब्र पीढ़ी में शायद इस शब्द को लेकर उतना रोमानीपन और आदर्शवादी भाव न हो, जितना अब तक की पीढ़ियों में देखा गया है। लोग प्रेम तो करते थे, पर उसमें एक पवित्रता का बोध भी बनाए रखते थे। ऐसी भावबोध वाली पीढ़ी में ‘गुनाहों का देवता’ बहुत ज्यादा पसंद किया गया है। आज की जवान होती पीढ़ी में शायद यह रचना उतनी लोकप्रिय नहीं, जितनी इससे पहले की पीढ़ी में देखी जाती थी। (अव्वल तो अबकी पीढ़ी उपन्यास/कहानियाँ/कॉमिक्स पढ़कर बड़ी ही नहीं हो रही। वैसे इमेजिन टीवी ने एक सीरियल बनाकर इसे पुन: लोकप्रिय बनाने की कोशिश की थी, कितनी कामयाब हुई, कह नहीं सकते!) सुनते हैं, एक समय था जब प्रेमचंद की रचनाएँ मजदूर, किसान से लेकर नवाब तक पढ़ा करते थे। वहाँ भी अपने किस्म का आदर्शवाद तारी था। लोग साहित्य से जीना सीखा करते थे। आज हमारे यहाँ साहित्य के लिए विकल्प के रूप में कुछ साधन आ गये हैं, जिनमें टी.वी., कम्प्यूटर आदि शामिल किए जा सकते है। खैर, इस रचना में प्रेम की चर्चा के साथ सबसे खास बात है, सामाजिक बंधनों पर बहस; जिससे एक खास दौर का हर एक जवान मन गुजरता है। बीस-पच्चीस की उम्र में उस समय सबको यह अपनी ही कहानी लगती थी, क्योंकि उस पड़ाव में लगभग सबके मन में एक सपनीला चेहरा रहा होता था, जिसे मन-ही-मन चाहा जा रहा होता था। ऐसे में यह उपन्यास मानो एक-दूसरे को मन की बात कहने का माध्यम-सा बन गया था, कम-से-कम गम ग़लत करने का साधन तो जरूर ही बन गया था। अपने किस्म की जातीय भिन्नता, मध्यवर्गीय ढुलमुलपन भी इस रचना की विशेषताएँ हैं, जो प्रेम की बाधा बनकर सामने आती हैं। सबसे बड़ी बात है कि यह उपन्यास उस दौर के नौसिखिये प्रेमियों को बड़े अच्छे ढंग की भाषिक अभिव्यक्ति में प्रेम-पत्र लिखना सिखाता है, जो अब बंद हो गए हैं..वैसे सीख तो अब भी सकते हैं..चाहें तो..

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